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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 79 चाहिए, इत्यादि मीठे वचनों से (अच्छे से) समझाने पर भी वे नहीं मानते हैं, तो श्रावक को अपने धन से पूजा, धूप, दीप, आदि करने के लिए किसी माली आदि की व्यवस्था करना चाहिए। स्वद्रव्य के अभाव में अन्य से एवं अन्य भी ये काम करने में असमर्थ हों, तो साधारण द्रव्य लेकर भी जिनमन्दिर में पूजा, प्रक्षाल आदि करने वाले की व्यवस्था करे। ऐसा करने से श्रावक स्वदेश में सबका अनुरागी होता है तथा जिनशासन की व जिनेश्वरदेव की पूजा-प्रभावना में अतिशय वृद्धि होती है एवं जीव सुलभबोधि को प्राप्त करता है। ४. जिनागम-संरक्षण :- इसमें कहा गया है कि जब श्रावक अपने जैन-शास्त्रों को नाश होते देखता है, तब उनमें से जो आगम गूढ अर्थ वाले हों, अनुयोग के हेतु उपयोगी हों, निमित्तशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र आदि से सम्बन्धित हों, उन ग्रन्थों व आगमों को उसे स्वयं लिखना चाहिए, यदि उन ग्रन्थों को स्वयं लिखने में असमर्थ हो एवं दूसरे भी लिखने में असमर्थता व्यक्त करते हों, तो ज्ञान की वृद्धि के लिए साधारण द्रव्य देकर भी दूसरों से लिखवाना चाहिए। उन ग्रन्थों को ताड़पत्र पर व्यवस्थित रूप से तीन, चार या अधिक पंक्तियों में लिखवाकर, ज्ञानवृद्ध पुरुषों को समर्पित करे, अथवा किसी योग्य क्षेत्र को जानकर उस संघ को समर्पण करे अथवा कुशल प्रतिभाशाली मुनिराज को देकर उनके पास से शास्त्रों का श्रवण करे अथवा स्वयं पढ़े। इस तरह आगमों को नष्ट होते हुए बचाने से मिथ्यात्वदर्शनवालों द्वारा शासन का पराभव होने से रोक सकते हैं। प्राचीन ग्रन्थों का संशोधन करने से जैन शासन की रक्षा होती है, भव्य जीवों पर अनुकम्पा (भक्ति) होती है एवं जीवों को अभयदान मिलता है। संसारी जीवों द्वारा जो भी उपकार या पुण्यकार्य किया जाता है, वह सब शास्त्रों के अध्ययन व श्रवण का ही परिणाम है, अतः गृहस्थ श्रावक को जिनागम संशोधन के लिए यथाशक्ति प्रवृत्ति करना चाहिए। ५. मुनिजनों की सेवा :- प्रस्तुत कृति में यह उल्लेख किया गया है कि संयम निर्वाह के लिए मुनि श्रावक से आहार, वस्त्र, आसन, पात्र, औषध, आदि वस्तुएँ नौ कोटि से विशुद्ध होने पर ही ग्रहण करता है, अर्थात् स्वयं सचित्त वस्तु को अचित्त नहीं करना, किसी वस्तु को नहीं खरीदना एवं नहीं पकाना, ऐसे न स्वयं करना न दूसरों से करवाना एवं न करते हुए का अनुमोदन करना। श्रावक को भी नौ कोटि से शुद्ध वस्तुएँ देना चाहिए। प्रस्तुत कृति में यह प्रश्न किया गया है कि संयम की पुष्टि के लिए ही जो साधु को दान देता है, तो उनके लिए पृथ्वीकाय आदि की हिंसा करना, यह कैसे योग्य गिना जाता है? इसके लिए दिनचर्या श्राद्धविधि में कहा गया है कि संयम निर्वाह में यदि रुकावट व बाधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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