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________________ 78 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री जीवों की रक्षा करते हैं और अन्त में सम्यक् चारित्र के पालन से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस तरह अनन्तकाल तक संसारी जीवों को दुःख या कष्ट नहीं देते हैं। इस प्रकार जिनमन्दिर के निर्माण से अहिंसा की सिद्धि होती है।87 २. जिनबिम्ब :- पूर्वोक्त विधि के अनुसार गृहस्थ किसी गाँव में प्रवेश करता है, तो वह वहाँ के भव्य जिनालयों को देखकर जिनदर्शन हेतु मन्दिर के अन्दर प्रवेश करता है, किन्तु जब भीतर जाने पर जिनबिम्ब अथवा जिनप्रतिमा नहीं हो या किसी ने उस प्रतिमा का हरण कर लिया हो, अथवा वह प्रतिमा खण्डित हो गई हो, तो श्रावक स्वद्रव्य से जिनप्रतिमा भराए, अर्थात् तैयार करवाए। पूर्व में बताई विधि अनुसार स्वयं अथवा अन्य की शक्ति के अभाव में साधारण द्रव्य से भी जिनबिम्ब तैयार करवाए एवं जिनमन्दिर में उन्हें उचित विधि से प्रतिष्ठित करे, क्योंकि भव्य जीव उन जिन प्रतिमाओं के दर्शन से बोधि को प्राप्त करते हैं एवं दीक्षा स्वीकार कर अन्य जीवों पर करुणा व वात्सल्य भाव रखते हुए उनकी रक्षा करते हैं। संवेगरंगशाला में साथ ही यह भी कहा गया है कि किसी गाँव में जिनमन्दिर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो, किन्तु जिनप्रतिमा सर्वांग सुन्दरदर्शनीय हो, तो उस गाँव के जिनमन्दिर में से जिनबिम्ब का उत्थापन करके, से अन्य गाँव के मन्दिर में लाकर प्रतिष्ठित करें। इस तरह स्थानान्तर करने में जिन सामग्रियों की आवश्यकता पड़ती है, उन सामग्रियों के लिए स्वद्रव्य का व्यय करें। स्वद्रव्य के अभाव में अन्य के पास प्रार्थना करें। इस तरह दूसरे के पास भी धन का अभाव होने पर ही साधारण द्रव्य का उपयोग करें। ऐसा करने से बोधिलाभ होता है। ३. जिनपूजा-द्वार :- जिस क्षेत्र में शिष्टाचार आदि गुणों से युक्त पुरुष रहते हों एवं वहाँ के दिव्य जिनालय में भव्य जिनप्रतिमाएँ दोष से रहित हों, किन्तु जिन-पूजा करने वाले एवं जिनपूजा की सामग्री का अभाव हो, तो पूर्व में कही विधि अनुसार श्रावक स्वद्रव्य से पूजा की सामग्री की व्यवस्था करे अथवा स्वद्रव्य की अल्पता में अन्य श्रावकगण से उचित सामग्री की व्यवस्था के लिए कहे। प्रस्तुत कृति में यह उल्लेख किया गया है कि श्रावक स्वयं जिनमन्दिर को अव्यवस्थित देखता है, अथवा अन्य के द्वारा सुनता है, तो गाँव के लोगों को एकत्रित करके मधुर वचनों से उन्हें समझाए कि आप लोग महान् भाग्यशाली व पुण्यशाली हो, जिससे आपके गाँव में इन्द्रभवन के सदृश भव्य जिनालय है, जिसमें दिव्य जिनप्रतिमाओं के दुर्लभ दर्शन प्राप्त होते हैं। ये जिनदेव वन्दनीय एवं पूजनीय हैं, तो फिर यहाँ जिनपूजा क्यों नहीं होती है। तुम सबको जिनपूजा अवश्य करना 87 संवेगरंगशाला, गाथा २७७८-२८०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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