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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /77 संवेगरंगशाला में दान के प्रसंग में दान के जिन दस क्षेत्रों का उल्लेख हमें मिलता है, आगे हम उन पर विस्तार से चर्चा करेंगे। श्रावक के दान के दस क्षेत्र :१. जिनमन्दिर :- संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में कहा गया है कि विहार करते हुए, अथवा तीर्थयात्रा हेतु परिभ्रमण करते हुए जब मुनि, अथवा गृहस्थ श्रावक गाँव या नगर में प्रवेश करते हैं, तब स्थिरता से पहले चैत्यवन्दन-विधि आदि करें, फिर जिनमन्दिर में कोई टूट-फूट तो नहीं है, उसका निरीक्षण करें, अथवा स्थिरता के अभाव में संक्षिप्त विधि से दर्शन करके, मन्दिर के उस टूटे हिस्से को देखें, यदि विशेष टूटा-फूटा हो, तो उसके सम्बन्ध में मुनीम आदि से कहें। मुनि भी मन्दिर सम्बन्धी उपदेश देकर उसके सुधार के लिए यथायोग्य चिन्ता रखें। इसमें आगे ग्रन्थकार का कहना है कि स्वदेश अथवा किसी देश में श्रावकों का अभाव हो, अथवा उनकी परिस्थिति कमजोर हो, ऐसे गाँव या नगर में जिनमन्दिर जीर्णशीर्ण हो गया हो, दीवार या सन्धिस्थान टूट गया हो या दरवाजे, देहली आदि क्षीण हो गए हों, ऐसा कहीं पर भी देखकर, अथवा अन्य के मुख से सुनकर श्रावक यह विचार करता है कि अवश्य किसी पुण्यशाली गृहस्थ ने इस जिनमन्दिर का निर्माण कराया है, किन्तु खेदजनक बात यह है कि कालक्रम में यह जीर्णशीर्ण हो गया है, अतः इसका जीर्णोद्धार करूँ, क्योंकि संसार की सर्व वस्तु नाशवान् है, अतः इसे पूरा तोड़कर पुनः नए रूप में तैयार कराऊँ। ऐसा करने से यह मन्दिर संसाररूपी गर्त में गिरने वालों के लिए हस्तावलम्बन जैसा बनेगा। ऐसा विचार कर, शक्ति हो, तो स्वयं तैयार करें, अन्यथा अन्य श्रावकों को कहें, इस तरह के श्रावक भी खर्च करने में असमर्थ हों, तो ऐसे समय में मन्दिर के साधारण खाते के द्रव्य का उपयोग करके भी मन्दिर का जीर्णोद्धार करें। इस ग्रन्थ में श्रावक साधारण द्रव्य को अन्य स्थान पर खर्च न करके, उस द्रव्य के खर्च से मात्र जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार करें, ऐसा उल्लेख है, क्योंकि साधारण द्रव्य से भी किए गए जीर्णोद्धार के पश्चात् जिनमन्दिर के दर्शन, वन्दन से सम्यक्त्वी जीव को बोधिलाभ होता है। साथ ही संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि यद्यपि जिनमन्दिर के निर्माण में निश्चय ही पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा होती है, तो भी सम्यग्दृष्टि जीवों को नियम से उस विषय में हिंसा का परिणाम नहीं होता है, परन्तु अनुकम्पा (भक्ति) का परिणाम होता है। जिनमन्दिर के निर्माण, अथवा जीर्णोद्धार करवाने से उसके दर्शन, वन्दन करनेवाले जीव बोध को प्राप्त करते हैं तथा सर्वविरतिचारित्र ग्रहण कर पृथ्वीकाय आदि 8० संवेगरंगशाला, गाथा - २८०७-२६३०. Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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