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________________ 72 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री 'स्वोपार्जित द्रव्य का दस क्षेत्रों में व्यय करते हुए श्रावक संलेखना ग्रहण करने की भावना से ग्यारह प्रतिमाओं का वहन करें और अन्त में संलेखना को धारण करे । ' इस कृति में हमें कहीं भी सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का तथा श्रावक के मार्गानुसारी गुणों और श्रावक के बारह व्रतों का सविस्तार विवेचन देखने को उपलब्ध नहीं होता है। मात्र ग्यारह प्रतिमाओं की चर्चा के दौरान द्वितीय व्रतप्रतिमा के प्रसंग में पाँच अणुव्रतों का उल्लेख प्राप्त होता है। उसके पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन व्रतों की अपेक्षा किंचित् विस्तारपूर्वक किया गया है। इसमें भी दर्शनप्रतिमा का स्वरूप अधिक विस्तार से वर्णित है। उसके पश्चात् व्रतप्रतिमा, सामायिकप्रतिमा, पौषधप्रतिमा का भी किंचित् विस्तार से उल्लेख किया गया है। शेष प्रतिमाओं का अति संक्षिप्त विवेचन ही उपलब्ध होता है। इस प्रकार जहाँ तक प्रस्तुत कृति का प्रश्न है, इसमें श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की चर्चा ही विस्तार से है, फिर भी यहाँ हम श्रावकधर्म की सामान्य विवेचना को दृष्टि में रखकर अति संक्षेप में सप्त दुर्व्यसनों के त्याग एवं प्रकारान्तर से अष्ट मूल गुणों के धारण का निर्देश करेंगे। उसके पश्चात् श्रावक के मार्गानुसारी गुणों तथा श्रावक के आवश्यक षट्कर्त्तव्यों की चर्चा करेंगे। उसके पश्चात् बारह व्रतों का उल्लेख करके अन्त में ग्यारह प्रतिमाओं का वहन करते हुए श्रावक को समाधिमरण की साधना किस प्रकार करना चाहिए, इसका प्रस्तुत ग्रन्थ के आधार पर उल्लेख करेंगे। सप्त दुर्व्यसन- त्याग और अष्ट मूलगुण धारण : 79 जैन-आचार्यों ने गृहस्थ-साधक के लिए अणुव्रत - साधना के पूर्व निम्न सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का विधान किया है । " वे इस प्रकार हैं :१. जुआ खेलना २. मांसाहार ३. सुरापान या मद्यपान ४. वैश्यागमन ५. शिकार ६. चौर्यकर्म और ७. परस्त्रीगमन | जिस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा में सम्यक्दर्शन की आराधना में सप्त दुर्व्यसनों का त्याग आवश्यक माना जाता है, उसी प्रकार दिगम्बर- परम्परा में अष्टमूलगुणों के धारण को आवश्यक माना गया है। ये अष्ट मूलगुण क्या है? इसको लेकर दिगम्बर - आचार्यों में भी मतभेद रहा है। प्राचीन ग्रन्थों में मद्य, मांस और मधु के साथ-साथ पाँच अणुव्रतों के पालन को अष्ट मूलगुण कहा गया है, किन्तु परवर्ती आचार्यों ने श्रावक-धर्म का परिपालन सहज रूप से हो सके, इसे दृष्टि में रखकर मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ-साथ वट, पीपल, गूलर, पिलंखन और अंजीर - इन पाँच औदुम्बर फलों के त्याग को 79 वसुनन्दि श्रावकाचार - ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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