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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 71 करनेवाला हो तथा विनीत स्वभाव वाला हो, साथ ही यह भी बताया गया है कि साधक सर्वतः क्रोध का त्यागी हो, मिथ्या आग्रह का त्यागी हो, उत्सुकता का त्यागी हो, आत्मप्रशंसा का त्यागी हो तथा सुन्दरता, धैर्यता, लज्जालुता, दीर्घदर्शिता, स्थिरता, एकाग्रता, सरलता, न्यायशीलता, इत्यादि गुणों से युक्त हो। साधक को आत्मा में स्थिर रहकर जो इहलोक-परलोक में कल्याणकारी हो, उन गुणों को सदैव प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।" संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार के अन्त में यह बताया गया है कि सामान्य आचार ही विशेष आचार में मुख्य हेतु होते हैं। जो निश्चय से सामान्य गुणों में प्रयत्न करता है, उसे ही विशेष गुणों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के सामान्य आचारों की आराधना गृहस्थ एवं साधु- दोनों के लिए कही गई है। आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में मार्गानुसारी गुणों के रूप में इन्हीं बातों की चर्चा की है।78 गृहस्थ धर्म : संवेगरंगशाला में सामान्य आराधना के चारित्रगुण की अपेक्षा से दो भेद किए गए हैं - १. मुनिधर्म की साधना और २. गृहस्थधर्म की साधना। जैन-परम्परा में गृहस्थधर्म की साधना की अपेक्षा से निम्न आराधनाएँ आवश्यक मानी गई हैं - सर्वप्रथम श्रावक को सप्त दुर्व्यसनों से मुक्त होकर श्रावक के मार्गानुसारी गुणों का पालन करते हुए गृहस्थ के जो षडावश्यक कर्तव्य बताए गए हैं, उनका पालन करना चाहिए। उसके पश्चात् श्रावक के पाँच अणुव्रतों, तीन गणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का निरतिचारपूर्वक पालन करना चाहिए, तत्पश्चात् क्रमशः श्रावक-जीवन की ग्यारह प्रतिमाओं का परिपालन करते हुए अन्त में संलेखनापूर्वक समाधिमरण को प्राप्त करना चाहिए। सामान्यतया, जैन ग्रन्थों में गृहस्थधर्म की विवेचना में सप्त दुर्व्यसन त्याग, श्रावक के मार्गानुसारी गुणों, श्रावक के षडावश्यक कर्तव्यों, बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, किन्तु जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, उसमें प्रथम परिकर्मद्वार के नौवें परिणाम उपद्वार में श्रावक की मनोभावना के विवेचन के अन्तर्गत तथा पुत्र अनुशास्तिद्वार के अन्तर्गत श्रावक के कुछ कर्तव्यों का उल्लेख हुआ है। उसमें मुख्य रूप से यह बताया गया है कि "संवेगरंगशाला, गाथा १५११-१५१६. 78 योगशास्त्र - १/४७-५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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