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________________ 70 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री ग्रहण और आसेवन-शिक्षा के भेद : संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में शिक्षा के उपर्युक्त तीन प्रकारों, अर्थात् ग्रहण-शिक्षा, आसेवन-शिक्षा और तदुभय-शिक्षा का वर्णन करने के पश्चात् इनके पुनः दो-दो भेद किए गए हैं। एक सामान्य आचरणरूप और दूसरा विशेष आचरणरूप तथा इसके भी पुनः साधु-जीवन सम्बन्धी और गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी। इस तरह दो-दो प्रकार बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं :साधु एवं गृहस्थ के आचार-धर्म : संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में साधु एवं गृहस्थ के आचार के स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि उभयलोक के कल्याण हेतु इन शिक्षाओं का आसेवन, अर्थात् परिपालन करना जरूरी है, तभी साधक अपनी साधना में सफल हो सकता है। संवेगरंगशाला में यह भी कहा गया है कि साधक को विशेष आराधना करने के पहले सामान्य आराधना, अर्थात् सामान्य आचरण का पालन जरूरी है। जैसे : __साधक हमेशा लोक-निन्दित व्यापार का त्याग करे। मन के कलुषित भावों को दूर करे। हर्ष और शोक से रहित रहे। कषायों से मुक्त होकर निर्मल चित्तवाला बने। शंख की कान्ति के समान निष्कलंक बने। हिरणी के नेत्र के समान निर्विकार रहे। साथ ही इसमें यह भी कहा गया है कि उत्तम श्रावक में ये सब गुण तो सहज रूप से प्राप्त होते ही हैं, फिर भी इन गुणों की विशेषता होने से साधक को इन्हें जान लेना जरूरी है। इसमें आगे साधक के आचार-धर्म का स्वरूप बताते हुए, उसकी निम्न महत्ता बताई गई है। साधक का सर्वप्रथम यह कर्तव्य होता है कि वह ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध की सेवा करने में सदैव तत्पर हो, शास्त्र का अभ्यास करने वाला हो; देव, गुरु और अतिथि का सत्कार करनेवाला हो, स्नेहपूर्वक वार्तालाप i s n xo is w 75 संवेगरंगशाला, गाथा १५०६ 76 संवेगरंगशाला, गाथा १५०८-१५१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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