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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 73 अष्ट मूलगुण माना है, किन्तु जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, उसमें हमें इस प्रकार का कोई निर्देश नहीं मिलता है। श्रावक के मार्गानुसारी गुण ____ श्रावक के मार्गानुसारी गुणों की चर्चा हमें आचार्य हरिभद्र के काल से मिलने लगती है। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने ३५ मार्गानुसारी गुणों का उल्लेख किया है। 80 अन्य कुछ आचार्यों ने ३५ मार्गानुसारी के स्थान पर श्रावक के २१ गुणों का उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा में पण्डित आशाधरजी ने इनमें से मात्र १४ गुणों का निर्देश किया है। यहाँ हम तीनों ही परम्पराओं में वर्णित श्रावक के गुणों का नामनिर्देश मात्र ही कर रहे हैं, क्योंकि प्रस्तुत कृति में इनके सम्बन्ध में भी यथावत् रूप से एक ही स्थल पर एक साथ हमें कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, यद्यपि प्रकीर्ण रूप से इनमें से अधिकांश का उल्लेख मिल जाता है। वे मार्गानुसारी गुण निम्न हैं:१. न्याय और नीतिपूर्वक अर्थ का उपार्जन करना। २. शिष्ट पुरुषों के श्रेष्ठ आचार की प्रशंसा करना। ३. समान कुल और आचार विचार वाले स्वधर्मी, किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्नजनों की कन्या के साथ विवाह करना। ४. पापों से भय रखना, अर्थात् पापाचार का त्याग करना। ५. अपने देश व राष्ट्र की संस्कृति व सभ्यता का समुचित पालन करना। ६. दूसरों की निन्दा न करना। ७. गृहस्थ का आवास न एकदम खुला हो और न एकदम गुप्त ही हो। आदर्श घर हो। ८. घर के अनेक द्वार न हो। ६. उत्तम आचारनिष्ठ एवं सद्विचारवान व्यक्तियों की संगति करना। १०. माता-पिता का सम्मान-सत्कार करना। ११. कलह से दूर रहना। १२. निन्दनीय आचरण न करना। १३. आय के अनुसार व्यय करना। १४. देश, काल व आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्र पहनना। १५. (१) जिज्ञासा (२) धर्म-श्रवण (३) ग्रहण (४) धारणा (५) विज्ञान (६) ऊह (७) अपोह और (८) तत्वाभिनिवेश- इन आठ प्रकार की बुद्धियों से युक्त होना। १६. अजीर्ण होने पर भोजन न करना। १७. नियत समय पर सन्तोष के साथ भोजन करना। १८. अवरोधीभाव से त्रिवर्ग की साधना करना। १६. अतिथि की सेवा करना। २०. दुराग्रह के वशीभूत न होना। २१. गुणानुरागी बनना। २२. देश-कालोचित आचरण। २३. शक्ति के अनुसार कार्य करना। २४. आचारवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध जनों की यथोचित सेवा करना। २५. उत्तरदायित्व निभाना। २६. दीर्घदर्शी २७. विशेषज्ञ २८. कृतज्ञ २६. लोकप्रिय ३०. लज्जाशील ३१. दयावान् ३२. ७० (क) धर्मबिन्दुप्रकरण - १/४ - ५८, (ख) योगशास्त्र, प्रथम प्रकाश - ४७, ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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