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________________ ४९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस जगत् में जो वस्तुएँ आँखों से दिखाई देती हैं, उन्हीं को हम मानते हों, ऐसा नहीं है। जो वस्तु आँखों से दिखाई नहीं देती, परन्तु कार्य करते हुए दिखाई देती है, उसे भी माना जाता है। पाँच हजार वर्ष पहले मोहन-जो-दड़ो शहर था। उसके रास्ते विशाल थे, घर सुन्दर थे। बाग-बगीचे थे। यह हम क्यों मानते हैं? इसका क्या आधार है? केवल वहाँ मिले अवशेषों के आधार पर हम यह सब समझ सकते हैं। यह सब हमने अपनी आँखों से तो देखी नहीं हैं। हवा को आँखों से कौन देख सकता है? परन्तु वृक्षों की टहनियाँ हिलती हैं, मंदिर पर लगा हुआ ध्वज फहरता है, तब हम कहते हैं कि हवा ज्यादा है। कहने का आशय यही है कि हवा आँखों से दिखाई नहीं देती। परन्तु उसके कार्यों से हम जान सकते हैं कि हवा है। इलेक्ट्रिसिटी द्वारा अनेक कार्य होते हैं। बटन दबाते ही पंखा घूमने लगता है, प्रकाश फैलता है। परन्तु पंखा चलाने वाली या प्रकाश देने वाली विद्युत् शक्ति को क्या आपने आँखों से देखा है? कितनी भी तीक्ष्ण दृष्टि होने पर भी हम विद्युत्शक्ति को आँखों से नहीं देख सकते। कितना भी मूल्यवान यत्र आँखों पर लगाने पर भी विद्युत्शक्ति दिखाई नहीं दे सकती। उसके कार्य से ही हम जानते हैं कि यह कार्य विद्युत्शक्ति से होता है। आज घर-घर में रेडियो की आवाज सुनाई देती है और कहा जाता है कि यह गीत अमेरिका से प्रसारित हुआ, यह गीत कोलंबो से प्रसारित हुआ, यह गीत कलकत्ता से प्रसारित हुआ। परन्तु यह गीत अमेरिका, कोलंबो और कलकत्ता से कैसे आया? कैसे प्रसारित हुआ? क्या उसे प्रसारित होते हुए किसी ने देखा? ऐसा कहा जाता है कि ईथर की लहरियों के कारण वह यहाँ आया, लेकिन उस ईथर को या उसकी लहरियों को गतिमान होते समय किसने देखा? केवल उसके कार्य से उसकी प्रतीति होती है। “वस्तु आँखों से दिखाई नहीं देती इसलिए उसका अस्तित्त्व ही नहीं है" ऐसा कहने वालों से अगर पूछा जाये कि तुम्हारे परदादा थे या नहीं? तुम्हारे परदादा के पिताजी थे या नहीं? तो वे क्या उत्तर देंगे? वे यही कहेंगे कि जरूर थे। बाद में उनसे यदि पूछा जाय कि तुम्हारी हजारवीं पीढ़ी थी या नहीं? या तुम्हारी दस हजारवीं पीढ़ी थी या नहीं? वे यही उत्तर देंगे - "थी", "जरूर थी।" “जरूर थी"- ऐसा कहने का क्या कारण है? जहाँ पाँचवीं पीढ़ी भी देखना दुष्कर है वहाँ सौवीं, हजारवीं, दस हजारवीं पीढ़ी कौन देख सकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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