SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व बहियों में, ऐतिहासिक ग्रंथों में, प्राचीन लेखों में उसके निर्देश नहीं मिलते। फिर भी कहते हैं, हाँ, हमारी पीढ़ी थी, इसका कारण यही है कि पीढ़ियाँ आँखों से दिखाई नहीं देतीं, परन्तु उनका कार्य आँखों से दिखाई देता है । तुम स्वयं उनका कार्य हो । तुम ही उनका जीवित स्वरूप हो । अगर तुम्हारी सौवीं, हजारवीं, दस हजारवीं पीढ़ी नहीं होती, तो तुम्हारा भी अस्तित्त्व कहाँ होता ? ५० इन सब बातों से सिद्ध होता है कि यदि वस्तु आँखों से दिखाई नहीं देती, उसका कार्य दिखाई देता है तो उसका अस्तित्त्व है । अब हम, आत्मा का कार्य दिखाई देता है या नहीं, इसका विचार करें। मनुष्य मर जाता है, उसका शरीर जैसा था वैसा ही रहता है। वही आकृति, नाक, आँखें, कान, हाथ, पैर जैसे के वैसे हैं । परन्तु मृत्यु के उपरान्त वह कुछ भी नहीं कर सकता। इसका क्या कारण है? मृत्यु से पहले भूख लगने पर वह खाने के लिए माँगता था, प्यास लगने पर पानी माँगता था। अब वह कुछ भी नहीं माँगता । माँगे बिना ही यदि उसके मुख में अत्र का एक कौर रखा जाय तो क्या वह उसे खाएगा? और पानी डालने पर क्या वह उसे पीयेगा? जब वह जीवित था तब कहता था 'यह मेरी पत्नी है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी कन्या है ये मेरे रिश्तेदार है, मगर अब क्यों नहीं बोलता । कुछ मिनट पहले वह पूछता था कि मेरे परिवार का क्या होगा ? संपत्ति का क्या होगा, जिस प्राणी से मैंने इतना प्रेम किया उसका क्या होगा? इस प्रकार कह कर वह निःश्वास छोड़ रहा था दुःखी हो रहा था, आँखों से आँसु गिरा रहा था, परन्तु यह सब एकाएक कैसे बन्द हो गया ? क्या परिवार वालों से उसका प्रेम कम हुआ? धन-संपत्ति विषयक आकर्षण कम हुआ? प्राणियों से उसका प्रेम छीण हुआ? नहीं, अगर ऐसा होता तो वह भवसागर तर जाता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ और सब काम बंद हो गया, यह सत्य है, तथ्य है । मरे हुए मनुष्य को यदि कोई गालियाँ दे तो क्या वह बोल सकता है ? कोई उसकी पिटाई करे तो क्या वह बदला ले सकता है? जरा सी अग्नि के स्पर्श से वह डरता था, परन्तु अब वह चिता पर सोया है मगर एक शब्द भी नहीं बोलता, इसका क्या कारण है? इसका कारण यही है कि जो जानने वाला था, देखने वाला था, सुनने वाला था, स्वाद लेने वाला था, बोलने वाला था, विचार करने वाला था तथा इच्छानुसार क्रिया करने वाला था, वह जा चुका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy