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________________ ४८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ___ गीताकार के ओजस्वी शब्दों में-"ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसाद् कुरुतेऽर्जुन'- हे अर्जुन! यह ज्ञान की अग्नि सब कमों को भस्म कर डालती है, आखिर वह ज्ञान कौन-सा है? वह है तत्त्वज्ञान। २ । __ आत्मा के अस्तित्त्व की सिद्धि आत्मा का स्वरूप समझने से पहले आत्मा का अस्तित्त्व समझना चाहिए। क्योंकि आत्मा के अभाव में आत्मस्वरूप संभव नहीं हो सकता - ___ “मूलं नास्ति कुतः शाखाः”। अगर मूल ही न हो तो टहनियाँ तथा पत्ते कहाँ से होंगे? आत्मा का अस्तित्त्व समझने के लिए कुछ बातों को समझना अत्यंत आवश्यक है - (१) जीव है (२) वह नित्य है (३) वह कर्म का कर्ता है (४) वह कर्मफलभोक्ता है (५) मोक्ष है और (६) मोक्ष-प्राप्ति के उपाय भी हैं।३ जो यह मानते हैं कि जीव है अर्थात् जीव का अस्तित्त्व है उन्हीं को सम्यक्त्व प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं। अगर जीव या आत्मा का अस्तित्त्व नहीं माना जाये तो पाप-पुण्य के विचार निरर्थक होंगे। स्वर्ग और नरक की बातें निरर्थक होंगी। पुनर्जन्म और परलोक की बातें अर्थहीन होंगी। इसलिए आत्मा का अस्तित्त्व स्वीकार करना आत्मवाद या मोक्षवाद की बुनियाद की पहली ईंट है। अब आत्मा के अस्तित्त्व पर विचार करें। आत्मा के अस्तित्त्व को समस्त भारतीय दर्शन मानते हैं। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास को देखें तो अधिकांशतः वहाँ भी हमें आत्मा के अमर अस्तित्त्व का समर्थन मिलता है। प्लेटो ने कहा है - "संसार के सारे पदार्थ द्वंद्वात्मक हैं। इसलिए जीवन के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जीवन अपरिहार्य है।" इसी प्रकार सॉक्रेटीज, अॅरिस्टॉटल आदि दार्शनिक आत्मा के अस्तित्त्व को मानते हैं। कुछ विद्वान् कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्त्व ही नहीं है। उनका कहना है कि आत्मा दिखाई नहीं देता, फिर उसका अस्तित्त्व कैसे? वे कहते हैं - 'प्रत्यक्ष दिखाइए, तभी मानेंगे, परन्तु आत्मा कोई लकड़ी या लोहे की वस्तु नहीं है जिसे हाथ पर लेकर दिखाया जा सके? जो वस्तु अरूपी है, आँखों से दिखाई नहीं देती, उस वस्तु को दिखाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, बुद्धि का उचित उपयोग करना पड़ता है। आत्मा को जानने वाले से सत्संग करना पड़ता है। अगर इस बात के लिए व्यक्ति तैयार हो तो आत्मा को दिखाना व आत्मा की प्रतीति कराना किंचित् ही कठिन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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