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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व अग्र भाग के बराबर हवा में लाखों जीव होते हैं। उन जीवों को 'थेक्स' कहा जाता है I ४४ वनस्पति भी सजीव है । विज्ञान युग में सर्वप्रथम यह बात सर जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध करके दिखाई। उन्होंने यंत्रों की सहायता से प्रत्यक्षतः दिखा दिया कि वृक्ष-पौधे आदि वनस्पतियाँ मनुष्य के समान अनुकूल परिस्थिति में सुखी और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी होती हैं और हर्ष, शोक, रुदन आदि क्रियाएँ भी करती हैं। जैनागम मानता है कि आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों क्रियाएँ वनस्पतियों में होती हैं । वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि वनस्पतियाँ मिट्टी, पानी, वायु और प्रकाश से आहार ग्रहण कर अपने शरीर का पोषण करती हैं। आहार के अभाव में वनस्पतियाँ जीवित नहीं रह सकतीं । वनस्पतियाँ पशु के समान मांसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार की होती हैं। आम, नीबू, जामुन आदि वनस्पतियाँ निरामिष हैं। सामिष वनस्पतियाँ विशेषतः विदेशों में दिखाई देती हैं। ऑस्ट्रेलिया में एक वनस्पति है । उसकी टहनियों में शेर के पंजे के समान बड़े-बड़े काँटे हैं। जब कोई घुड़सवार उस वृक्ष के नीचे से गुजरता है तो, जिस प्रकार चीता हिरन पर झपट पड़ता है, उसी प्रकार उस घुड़सवार को वह वनस्पति उठा लेती है और वह सवार उस वनस्पति का भक्ष्य बन जाता है । अमेरिका के उत्तर केरोलिना राज्य में 'वीनस फ्लाईट्रेप' नामक वृक्ष है 1 जैसे ही कोई कीट-पतंगा उसके पत्ते पर बैठता है, वह पत्ता स्वतः बंद हो जाता है । वृक्ष जब उस कीट के रक्त, मांस का शोषण कर लेता है, तब वह पत्ता खुलता है और उसमें से कीट का सूखा शरीर नीचे गिर जाता है। इसी प्रकार पीचर प्लांट, रेन हैड्रयू टट्रम्पट, वटरवॉर्ट, सनड्रयू उपस, टच-मी-नॉट आदि अनेक मांसाहारी वृक्ष हैं। वे जीवित कीटों को पकड़कर खाने की कला में प्रवीण हैं । 1 भयभीत होने वाली वनस्पतियों में छुईमुई प्रसिद्ध है । पत्तों को उँगली दिखाने पर यह वनस्पति भयभीत होकर शरीर को संकुचित कर लेती है वनस्पतियों में मैथुन आदि क्रियाएँ किस प्रकार घटती हैं इसका विवेचन श्री पी० लक्ष्मीकांत ने नवनीत ( अगस्त १९५५, पृ० २६ से ३२ ) में विस्तार से किया है। समस्त वनस्पतियाँ अपने अपत्यों के लिए अन्न का संग्रह करती हैं 1 वनस्पतिशास्त्रज्ञों का कहना है कि एक भी फूलने वाला वृक्ष ऐसा नहीं है जो अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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