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जैन-दर्शन के नव तत्त्व उत्पत्तिस्थान माना है और जैन-धर्म भी उसे अनन्तानन्त जीवों का भण्डार मानता
है।
एक ही शरीर में अनन्त जीवों का अस्तित्त्व मानने से ऐसा दिखाई देता है कि उसमें स्वतंत्र कर्तृत्व या पुरुषार्थ नहीं है। केवल विकास की योग्यता है। उसे आम कहिए या गुटली, कुछ विशेष फर्क नहीं पड़ता।
जैन दर्शन में कहा गया है कि मलमूत्र, श्लेष्म आदि वस्तुओं में भी जीव निरन्तर उत्पन्न होकर मरते रहते हैं। इस प्रकार के जीवों को 'सम्मूर्छिम जीव' कहते हैं। इन जीवों की हमेशा वृद्धि होती रहती है। प्राणियों के बारे में विज्ञान भी यही मानता है कि प्रत्येक आई वस्तु में कीटाणु रहते हैं।
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति की सजीवता को अन्य दार्शनिक कपोलकल्पित मानते थे। परन्तु आज विज्ञान ने ये बातें सत्य सिद्ध कर दी हैं।
श्री एच-टी- बर्सटापेन का कहना है . “जिस प्रकार बालक बढ़ता है, उसी प्रकार पर्वत भी धीरे-धीरे बढ़ता है।" दुनिया के पर्वतों के बढ़ने के संबंध में वे कहते हैं- 'न्यूगिनी के पर्वतों ने अब अपनी शैशवावस्था को पार किया है। सेलिवीस के दक्षिण की तरफ के पूर्व भाग, भोलूकास के कुछ भू-भाग और इंडोनेशिया की भूमि की ऊँचाई बढ़ रही है। श्री सुगाते का मत है कि 'न्यूजीलैंड के पश्चिम की ओर के नेल्सन के पहाड़ “प्लाइस्टोसीन"- युग के अन्त में विकसित हुए हैं।'
श्री वेल्मेन के कथन के अनुसार आल्प्स पर्वत-माला का पश्चिमी भाग आज भी बढ़ रहा है। द्वीप की भूमि का ऊँचा उठना और पर्वतों की वृद्धि पृथ्वी की सजीवता के स्पष्ट प्रमाण हैं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री कैप्टेन स्कवेसिवी ने एक यन्त्र के द्वारा बताया है कि एक छोटे से जलकण में छत्तीस हजार चार सौ पचास जीव होते हैं। इससे अपकाय जीव की सिद्धि होती है। जिस प्रकार मनुष्य, पशु आदि सजीव प्राणी साँस द्वारा शुद्ध वायुरूप ऑक्सीजन (Oxygen) ग्रहण कर जीवित रहते हैं और ऑक्सीजन या शुद्ध हवा के अभाव में मरते हैं, उसी प्रकार अग्नि भी हवा से ऑक्सीजन लेकर जीवित रहती है। अर्थात् जलती है। वह किसी बर्तन से ढकने पर या अन्य किसी प्रकार से हवा न मिलने पर तुरन्त बुझ जाती है। इससे तेजस्काय (अग्निकाय) जीव की सिद्धि होती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सुई के
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