SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व अपत्यों के लिए बीज रूप में आवश्यक अन्नसंग्रह नहीं करता। ऐसे वृक्ष वसन्त और ग्रीष्म ऋतु में बड़े परिश्रम से अन-सामग्री जमा करते हैं। वनस्पतियों की निद्रा का वर्णन (नवनीत, अप्रेल १६५२, पृ० २६) करते हुए श्री हिरण्यमय बोस लिखते हैं - "जिस प्रकार जीवित प्राणी (चलने वाले व घूमने वाले) परिश्रम के बाद रात्रि में सोकर थकावट दूर करते हैं, उसी प्रकार वनस्पतियाँ भी रात्रि में सोती हैं। सूडान और वेस्टइंडीज में एक ऐसा वृक्ष है जिसमें से दिन में विविध प्रकार की राग-रागिनियाँ निकलती हैं और रात में ऐसा रोना शुरू हो जाता है जैसे किसी की मृत्यु हो गई हो। डॉ० जगदीशचंद्र बसु ने वनस्पतियों की क्रोध, घृणा, प्रेम, आलिंगन आदि अन्य अनेक प्रवृत्तियों पर काफी प्रकाश डाला हैं। जैन-ग्रंथों में वनस्पतियों की अधिकतम आयु दस हजार वर्ष बताई गई है। प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ एडमण्ड शुमांशा के अनुसार आज भी अमेरीका में केलिफोर्निया के नेशनल पार्क में चार हजार छह सौ वर्ष की उम्र के वृक्ष विद्यमान हैं। चेतना के इस विकास-क्रम को प्राणिशास्त्रज्ञों ने भी मान्यता प्रदान की है। वे भी 'वृक्षों में जीव है। यह मानने लगे हैं। वे अमीबा से मनुष्य तक के क्रमिक विकास को मानते हैं। लीना देसाई ने 'वनस्पतियों का रहस्यमय जीवन' लेख में अनेक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि वनस्पतियाँ सजीव हैं।" जीव का विकासक्रम जैन दर्शन में जीवों का क्रम इस प्रकार बताया गया है - असंज्ञी जीवों की सत्ता भगवान् महावीर ने हजारों वर्ष पहले प्रतिपादित की थी। आज विज्ञान भी इसे मानता है। जर्मनी के जीवशास्त्रज्ञ अर्नेस्ट हेकेल ने "रिडल ऑफ लाइफ" में अग्निकाय जीवों की सत्ता मानी है। उन्होने अव्यक्त जीवसत्ता को भी माना है। जीव तथा निर्जीव के मध्य में 'मोनेटा' के अस्तित्त्व को उन्होंने स्वीकार किया है जो दोनों से भिन्न है। निर्जीव में जीवन है ही नहीं, सजीव में वह व्यक्त होता है। अव्यक्त जीवन की भी स्थिति है। वेदान्त के मत से अव्यक्त और व्यक्त इन दोनों रूपों में जीवन है। वैज्ञानिकों ने परमाणु में इच्छा और चेतना [Consciousness & Volition] की शक्ति मान्य की है। उनका अनिश्चितता सिद्धान्त इसी का द्योतक है। परमाणु के आन्तरिक घटक, नियमों को छोड़कर भी क्रिया करते हैं। उनके संबंध में प्रस्थापित नियमों के आधार पर निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy