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________________ ३७ अनंतानंत है। उनकी संख्या न शक्ति के द्वारा वे इस लोक में सदैव रहेंगे । ७६ पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु इनमें जीव है यह सिद्ध करने के पश्चात् वनस्पति में भी जीव है ऐसा आगम में और स्याद्वादमंजरी में स्पष्ट रूप से सिद्ध किया गया है। उसमें कहा गया है - वनस्पति में भी जीव है क्योंकि मानव शरीर के समान उसका छेदन करने पर वह दुःखी होती है। स्त्रियों के पाद- प्रहार करने पर कुछ वनस्पतियों में विकार उत्पन्न होता है। इससे 'वनस्पतियों में जीव है' यह सिद्ध होता है । जीव इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य और आगमों ने 'पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति ये सब अजीव हैं, यह सिद्ध किया है ७७ जीव- अजीव : वस्तु-विचार मुक्त संसारी त्रस रथावर अणु रत्नप्रभागत जलचर शर्कराप्रभागत बालुका पंकप्रभा जैन दर्शन के नव तत्त्व कभी कम होगी और न ही बढ़ेगी। अपनी चेतना द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी नारकी तिर्यच मनुष्य देव धूमप्रभा तमप्रभा महातमप्रभा भूचर खेचर Jain Education International पुद्गल धर्म अधर्म स्कंध - बुद्धि विक्रिया तप बल औषधि आर्य म्लेच्छ ऋद्धिप्राप्त अनृद्धिप्राप्त क्षेत्रार्य जात्यार्य कर्मार्य रस अक्षणि आकाश लोक अलोक व्यवहार निश्चय चारित्रार्य दर्शनार्य अजीव पृथ्वी जल तेज वायु वनस्पति प्रत्येक साधारण नित्यनिगोद काल For Private & Personal Use Only इतरनिगोद क्षेत्रम्लेच्छ कर्मम्लेच्छ www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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