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________________ जैन-दर्शन के नव तन्व अग्नि सजीव है। जिस प्रकार मृत शरीर में उष्णता नहीं रहती, उसी प्रकार अग्नि बुझ जाने पर ठंडी पड़ जाती हैं। भोजन प्राप्त होने पर मनुष्य-शरीर में वृद्धि होती है और न मिलने पर वह क्षीण होता है। यही बात अग्नि पर भी लागू होती है। इंधन प्राप्त होने पर वह बढ़ती है और न मिलने पर शान्त होकर निस्तेज हो जाती हैं। मनुष्य के समान अग्नि भी हवा के बिना नहीं रह सकती। वह भी प्राणवायु (ऑक्सीजन) लेती है और विषवायु (कार्बन-डाई-ऑक्साइड) छोड़ती है। वायु मनुष्य और तिर्यच (पशु-पक्षी) के समान चलती रहती है। वह अन्य जीवों के समान अपने शरीर का संकोच-विस्तार भी करती है। वनस्पतियों की सजीवता से तो सब परिचित हैं। डॉ. जगदीशचंद्र बसु ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया है। उन्होंने अपने संशोधन से यह भी सिद्ध किया है कि वृक्षों को भी जीवित रहने के लिए अन्न, पानी, हवा, प्रकाश आदि की आवश्यकता होती है। एकेन्द्रिय जीवों में सजीवता है। भगवान महावीर ने मानव-शरीर के साथ वनस्पति की तुलना करते हुए स्पष्ट कहा है कि मनुष्यों के समान पेड़ों में भी चेतना शक्ति है। सुख, दुःख, आघात आदि का अनुभव वे भी करते हैं। मनुष्य के शरीर पर घाव आदि होने पर वे पुनः ठीक हो जाते हैं। उसी प्रकार वृक्ष भी छिन्न-भित्र होने पर पुनः अच्छे हो जाते हैं। वृक्षों को भी मनुष्यों के समान भूख-प्यास का अनुभव होता है। अन्न, पानी आदि प्राप्त होने पर मनुष्य-शरीर के समान वृक्ष भी बढ़ते हैं और प्राप्त न होने पर सूख जाते हैं। आयु समाप्त होने पर वृक्ष भी मनुष्य के समान मर जाते हैं। वनस्पतियों के लिए जो कथन किया गया है, वह अन्य पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों के बारे में भी समझना चाहिए। वृक्षों के दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि एकेन्द्रिय जीवों में चेतना है और उनमें चेतनाजन्य प्रवृत्ति अव्यक्त रूप में होती रहती है। जब तक जीव का शरीर के साथ संबंध रहता है तब तक शरीर के संयोग से होने वाली भूख-प्यास, टंड, उष्णता, सोना, उठना, बैठना, विश्राम करना आदि क्रियाएँ व्यक्त और अव्यक्त रूप में होती रहती हैं और इन क्रियाओं से उनकी चेतना का ज्ञान होता रहता है। संसार के सब जीवों में (कीट, पतंग, देव, नारकी, पशु-पक्षी, वनस्पति, मनुष्य आदि किसी भी शरीर के रूप में वे क्यों न हों) चेतना है और सुख, दुःख आदि का अनुभव करने की क्षमता है। वे सभी जीव हैं। जीवों की संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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