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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व मन के भेद मन के दो भेद हैं- (१) द्रव्यमन (२) भावमन इनकी व्याख्या इस प्रकार की गई हैपुद्गलविपाकी नामकर्म के उद्गम से द्रव्यमन होता है और वीर्यान्तराय अथवा इंद्रियावरण के क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि भावमन है । मन के साथ होने वाला जीव समनस्क और मनरहित होने वाला जीव अमनस्क है । इस प्रकार दो प्रकार के जीवों के दो भेद हैं। ३८ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र में द्रव्यमन की और भावमन की व्याख्या इस प्रकार की गई है 'मनोवर्गणा के द्वारा अष्टदल कमल के आकार के बने हुए अंतःकरण को द्रव्यमन कहते हैं और जीव के उपयोगरूप परिणाम को भावमन कहते हैं। मन का अर्थ- जिसके द्वारा विचार किया जाता है ऐसी आत्मिक शक्ति मन है । यह भावमन है और इसकी सहायता करने वाला जो एक प्रकार का सूक्ष्म परमाणु-मन है, वह द्रव्यमन है । मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है- 'मनः मननं मन्यते अनेन वा मनः ।' शरीर के भेद संसारी जीव देहधारी होते हैं। देहधारी जीव अनन्त हैं। उनके शरीर अलग-अलग होने से वे व्यक्तिशः अनन्त हैं । परन्तु कार्यकारण- दृष्टि से उनके पाँच भेद बताए गए हैं (१) औदारिक (२) वैक्रिय (३) आहारक ( ४ ) तेजस् (५) कार्मण | - जीव की क्रिया के साधन को शरीर कहते हैं । (१) औदारिक जो शरीर जलाया जा सकता है, जिसका विच्छेदन हो सकता है, उस शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं । यह शरीर मनुष्य और तिर्यच ( पशु- पक्षी) का होता है । (२) वैक्रिय जो शरीर कभी छोटा तो कभी बड़ा हो जाता है, कभी मोटा तो कभी कृश हो जाता है, जो कभी एक होता है और कभी अनेक । इस प्रकार अनेक रूपों को जो धारण करता है, वह वैक्रिय शरीर है । (३) आहारक जो शरीर केवल चतुर्दशपूर्वधारी मुनि का ही होता है, वह Jain Education International · आहारक शरीर है । ( ४ ) तेजस् - जो शरीर तेजोमय होने से खाए हुए आहार आदि का पाचन करता है, वह तेजस् शरीर कहलाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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