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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
रहने वाले देवों से आयु, सामर्थ्य, सुख, तेज आदि बातों में अधिक श्रेष्ट होते
हैं।
कल्पोत्पन्न देवों में निम्नलिखित दस पद होते हैं - (१) इन्द्र - ये . सामानिक आदि सब प्रकार के देवों के स्वामी होते हैं। (२) सामानिक - ये समृद्धि में इन्द्र के समान होते हैं परन्तु इनमें इन्द्रत्व नहीं होता। (३) त्रायस्त्रिंश - ये मंत्री का काम करते हैं। (४) परिपद्य - ये मित्रों का काम करते हैं। (५) आत्मरक्ष - ये शस्त्र उठाकर पीछे खड़े रहते हैं। (६) लोकपाल - ये सीमा की रक्षा करते हैं। (७) अनीक - ये सैनिक रूप होते हैं। (८) प्रकीर्णक - ये नागरिक के समान होते हैं। (६) अभियोग्य - ये सेवक के समान होते हैं। (१०) किल्विषिक - ये अन्त्यज के समान होते हैं। भवनवासियों में भी ये दस पद हैं। व्यन्तर देव तथा ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल को छोड़कर शेष आठ पद होते हैं।७२
ब्रह्मलोक नामक पाँचवें कल्प में चारों ही दिशाओं में लोकान्तिक देव रहते हैं। विषयरति-रहित होने से उन्हें 'देवर्षि' कहते हैं। उनमें पारस्परिक उच्च-निम्न भावों का अभाव रहता है। वे तीर्थकरों के अभिनिष्क्रमण या गृहत्याग के समय उनके सामने उपस्थित होकर उन्हें प्रतिबोध देने के आचारधर्म का पालन करते
देव, मनुष्य और नरकीय जीव समनस्क होते हैं। जो गर्भधारण करने वाले तिर्यच हैं, वे भी समनस्क होते हैं। सारे तिर्यच समनस्क नहीं हैं। संज्ञा की व्याख्या करते हुए श्री माधवाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह में कहा है कि शिक्षा (दूसरे को उपदेश), क्रिया तथा वार्तालाप का ग्रहण करना संज्ञा है। जिनकी ऐसी संज्ञा है वे मनसहित हैं और जिनकी ऐसी संज्ञा नहीं होती, वे मनरहित हैं।
स्थावर जीवों के भेद स्थावर जीवों के पाँच भेद हैं - (१) पृथ्वीकाय (२) अपकाय (३) तेजस्काय (४) वायुकाय और (५) वनस्पतिकाय। (१) पृथ्वीकाय-मिट्टी (२) अपकाय-पानी (३) तेजस्काय-अग्नि (४) वायुकाय-वायु (५) वनस्पतिकाय-वृक्ष।
___ आचार्य श्री उमास्वाति की 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' की कुछ प्रतियों में स्थावर के तीन भेद और कुछ प्रतियों में पाँच भेद बताए गये हैं।
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