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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व क्रमशः से दस, आठ, पाँच और बारह उपभेद हैं । इन्द्र के समान पद पाने वालों को स्वर्ग के कल्प कहा गया है। कल्प में उत्पन्न हुए देवों को 'कल्पोत्पन्न' कहा जाता है । कल्प से श्रेष्ठ कोई भी पदविभाजन नहीं होता। इसलिए स्वर्ग में उत्पन्न हुए देवों को “कल्पातीत" कहा गया है। ये सारे देवता समान होते हैं । इन्द्र के समान होने पर उन्हें 'अहमिन्द्र' कहा जाता है। किसी कारण से मनुष्य - लोक में जाने का प्रसंग आने पर कल्पोत्पन्न देव ही मनुष्य-लोक में जाते है, कल्पातीत नहीं । भवनवासी और ऐशान कल्प तक के अन्य देव मनुष्यों के समान ही वासनात्मक सुख का उपभोग करते हैं। सनत्कुमार और महेन्द्र कल्प के देव - देवियों के शरीर का केवल स्पर्श करके ही कामसुखं प्राप्त करते हैं । ब्रह्म, ब्रह्ममोत्तर, लान्तक और कापिष्ट कल्प के देव केवल देवियों का सौंदर्य देख कर ही अपनी वासनापूर्ति कर लेते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्प के देव केवल देवियों का मधुर संगीत सुनकर अपनी वासना तृप्त कर लेते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव देवियों का केवल स्मरण करके ही अपनी कामेच्छा शान्त कर लेते हैं। बाकी बचे देव कामवासना से रहित होते हैं। भवनवासी देवों में इन देवों का समावेश होता है (१) असुरकुमार ( २ ) नागकुमार ( ३ ) विद्युत्कुमार (४) स्वर्णकुमार (५) अग्निकुमार ( ६ ) वातकुमार ( ७ ) स्तनितकुमार (८) उदधिकुमार (६) द्वीपकुमार और (१०) दिक्कुमार। * १८ ये देव अपने वस्त्र, आभूषण, शस्त्र, वाहन आदि के कारण युवा दिखाई देते हैं इसलिए इन्हें कुमार कहा गया है। ३३ असुर कुमारों का निवास स्थान प्रथम नरक के कीचड़युक्त हिस्सों में होता । अन्य कुमारों का निवासस्थान प्रथम पृथ्वी रत्नप्रभा के मुख्य हिस्से के ऊपर या नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर होता है 1 किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये व्यन्तर देव हैं। राक्षस कीचड़मय भाग में रहते हैं । अन्य व्यन्तर देवों का निवास अगणित द्वीपों पर और सागर के प्रमुख हिस्सों में होता है । ७० वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं (१) कल्प में जन्म लेने वाले ( कल्पोत्पन्न) और (२) कल्प के अलावा दूसरी जगह जन्म लेने वाले (कल्पातीत) । कल्प में रहने वाले देवों के बारह इन्द्र हैं। कल्प के अलावा इतर स्थानों में जन्म लेने वालों में इन्द्र इत्यादि नहीं होते । उच्च स्थानों में रहने वाले वैमानिक देव नीचे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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