SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व संसारी जीव के दो भेद :- (१) भव्य (२) अभव्य आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पंचास्तिकाय ग्रंथ में १२० (एक सौ बीस) वीं गाथा में कहा है कि इस विश्व में जीव के दो भेद हैं-एक देहधारी और दूसरा देहरहित। देहधारी संसारी है। देहरहित सिद्ध है। संसारी जीव के भी दो भेद हैं-भव्य और अभव्य । जो जीव शुद्ध स्वरूप प्राप्त करता है उसे भव्य कहा जाता है और जिसमें शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने की शक्ति नहीं है, उसे अभव्य कहा जाता जिस प्रकार मूंग का कोई दाना ऐसा होता है जो पकाने पर पक जाता है, जबकि कोई दाना अनेक लकड़ियाँ जलाने पर भी नहीं पकता। उसे 'कोरडू' कहते हैं। उसी प्रकार अभव्य जीव कभी भी सिद्ध गति को प्राप्त नहीं कर सकता। विशेषावश्यकभाष्य में भव्य-अभव्यों का सुंदर स्पष्टीकरण प्राप्त होता है। तत्त्वार्थ-राजवार्तिक में भी आचार्य श्रीमद्भट्टाकलंक देव ने भव्य-अभव्य की व्याख्या इस प्रकार की है जिसमें सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र का निर्माण होता है वह भव्य है और जिसमें निर्माण नहीं होता, वह अभव्य है।५ सर्वदर्शनसंग्रह में माधवाचार्य ने जैनदर्शन के अन्तर्गत भव्य और अभव्य के बारे में कहा है कि जीव दो प्रकार के हैं- भव्य और अभव्य। जीव अँधेरे में भटकता रहता है। एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करता रहता है। जब तक जीव में आध्यात्मिक विकास के लिए स्वयं प्रयत्न नहीं होते, तब तक उसे सम्यक्दर्शन प्राप्त नहीं होता। जब जीव में सत्य की प्राप्ति की उत्कण्ठा होती है, तब सम्यक्दर्शन होता है। सब जीवों में सत्य की उत्कण्ठा नहीं होती। जिसे ऐसी उत्कण्ठा होती है, उसे सम्यक्दर्शन प्राप्त होता है। जो मोक्ष के इच्छुक होते हैं वे भव्य जीव [fit for liberation] हैं। जिनमें यह लक्षण नहीं होता, वे अभव्य हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। माधवाचार्य ने बौद्ध धर्म के अभव्य का वर्णन इस प्रकार किया है वर्षत्यपि पर्जन्ये नैवाबीजं प्ररोहति। समुत्पादेऽपिहि बुद्धानां नाभव्यो भद्रमश्नुते।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy