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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जीव के भव्यत्व और अभव्यत्व भाव चैतन्य के समान ही पारिणामिक हैं।५६
राजप्रश्नीयसूत्र में भी भव्य-अभव्य का उल्लेख दिखाई देता है। सूर्याभ देवता ने भगवान महावीर स्वामी से अनेक प्रश्न पूछे हैं। एक प्रश्न है- “हे भगवन्! मैं भव्य हूँ या अभव्य?"५७
भव्य और अभव्य ये - दो भेद क्यों माने गये हैं इसका कोई कारण कहा नहीं जा सकता। इसलिए आचार्य सिद्धसेन ने इस विषय को अगम्यगम्य अर्थात् अहेतु वादान्तर्गत लिया है।
संसारी जीव के अन्य दो भेद संसारी जीव के अन्य दो भेद है- (१) त्रस जीव तथा (२) स्थावर जीव । त्रसनाम कर्म के उदय से जिसे सुख-दुःख का स्पष्ट अनुभव होता है, उसे त्रसजीव कहते हैं। स्थावर नाम कर्म के उदय से जिसे सुख-दुःख का स्पष्ट अनुभव नहीं होता, उसे स्थावर जीव कहते हैं।"
जो जीव सुखप्राप्ति के लिए और दुःख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए स्थानान्तर कर सकते हैं, उन्हें त्रस जीव कहते हैं। जो सुख प्राप्त करने के लिए
और दुःख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए स्थानान्तर नहीं कर सकते, उन्हें स्थावर जीव कहते हैं।६०
त्रस का अर्थ सामान्यतः गतिशील [Locomotive] और स्थावर का स्थितिशील [immovable] किया जाता है। परन्तु सही अर्थ यह है कि त्रस जीव
और स्थावर जीव ये दोनों विशेष प्रकार के कर्मों के बोधक हैं। इन कर्मों के कारण ही कुछ जीव जन्म लेकर स्थावर होते हैं और कुछ त्रस होते हैं। शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के कमों को त्रस कहते हैं विशेषतः अशुभ कर्म को स्थावर कहते हैं। त्रस कर्म के उदय से त्रस जीव और स्थावर कर्म के उदय से स्थावर जीव बनते हैं।
त्रस जीवों के चार भेद (१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय, (४) पञ्चेन्द्रिय। (१) द्वीन्द्रिय - जो स्पर्श और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त हैं उन्हें द्वीन्द्रिय कहते
यथा - शंख, सीप, कीटक आदि। (२) त्रीन्द्रिय-जो स्पर्श, रसना और घ्राण से युक्त हैं उन्हें त्रीन्द्रिय कहते हैं।
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