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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
अब जीव के साथ कर्म कभी पुण्य का तो कभी पाप का वेश धारण कर द्विपात्री भूमिका लेकर रंगभूमि पर आकर नाचने लगता है। ज्ञान इसे भी पहचानता है कि ये दोनों रूप भी एक ही चाण्डाल के हैं। एक स्वयं चाण्डाल के वेश में और दूसरा ब्राह्मण के वेश में आया है। ज्ञान ने हमें पहचान लिया है यह जानकर कर्म भी द्विरूपता को छोड़कर अपना वास्तविक रूप धारण कर रंगभूमि पर से निकल जाता है।
कर्म के जाते ही रंगभूमि पर आस्रव का प्रवेश होता है। ज्ञान की नजर से आस्रव का नकली स्वरूप भी बच नहीं पाता है। ज्ञान निश्चित रूप से यह समझता है कि आस्रव का संबंध अज्ञान से है, मुझसे तो है ही नहीं। हम यहाँ रह नहीं सकेगें यह जानकर आस्रव भी निकल जाता है।
___आनव निकल गया है यह देखकर संवर प्रवेश करता है। आस्रव का विरोधी संवर है। वह जीव के साथ ही अपना एकत्व प्रस्थापित करना चाहता है।
तब ज्ञान संवर के गुणों को जानकर भी विचार करता है कि अगर आत्मा कमों का कर्ता ही नहीं है, तो उसके निरोध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अगर आत्मा निरोधक ही नहीं, तो संवर के साथ आत्मा का एकत्व कैसे हो सकेगा? इसलिए आत्मा का अगर कोई संवर भाव होगा, तो वह आसव के कारण ही होगा। जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक भेदविज्ञान की उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा विश्लेषण करने पर संवर भी रंगभूमि से निकल जाता है।
संवर के बाद निर्जरा का आगमन होता है। तब ज्ञान यह जानता है कि आत्मा में वैराग्य होना यही एकमात्र निर्जरा है। वैराग्य के कारण (विरक्ति) चेतन-अचेतन का उपभोग करके भी ज्ञानी को नवीन कर्मबंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। इस वैराग्य भाव के अलावा दूसरी कोई भी निर्जरा नहीं है। इस प्रकार निर्जरा का स्वरूप जान लेने पर निर्जरा भी रंगभूमि पर से निकल जाती है।
अब रंगभूमि पर बंध का आगमन होकर उसका नृत्य शुरू होता है और वह आत्मा के साथ अभेद स्थापन करना चाहता है। तब ज्ञान समझता है कि कर्म परद्रव्य है इसलिए आत्मा के साथ उसका बंध होना उचित नहीं है। अगर कोई बंध हो सकता हो तो वह आत्मा की राग बुद्धि के कारण ही है। विशुद्ध आत्मा का और कर्म का संबंध कभी होता नहीं, अर्थात् उसका बंध हो ही नहीं सकता। इस प्रकार ज्ञान द्वारा जाना जाने पर बंध वहाँ से निकल जाता है।
आखिर मोक्ष रंगभूमि पर प्रवेश करता है। बंध का विरोधी मोक्ष हैं। सारे बंधन नष्ट होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। आत्मा जिस अज्ञानमय भाव से बंध
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