SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जैन दर्शन ने पुण्य और पाप को विशेष महत्त्व नहीं दिया है। परंतु पाप का त्याग किए बिना पुण्य में प्रवृत्ति नहीं होती है। किसी को भी पुण्य का त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा गया है। मीमांसा दर्शन ने पुण्य को स्वर्गप्राप्ति का हेतु और पाप को नरक गति का हेतु माना गया है। अन्य दर्शनों ने भी करीब-करीब यही भूमिका स्वीकार की है। जैन दर्शन ने पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्त्व माना है। फिर भी पुण्य-पाप का मोक्ष से कुछ भी संबंध नहीं है, ऐसा स्पष्ट रूप से कहकर मुमुक्षु को पाप और पूण्य इन दोनों से परे जाकर आत्मोन्नति करते हुए मोक्ष प्राप्त करना चाहिए ऐसा भी स्पष्ट रूप से निर्देश दिया है। यह कल्पना बाद में 'गीता' में भी आई है। आदर्श भक्त के स्वरूप का वर्णन करते हुए उसे शुभ और अशुभ कर्म का त्याग करने वाला माना है। जैन तत्त्व ज्ञान के अनुसार भी पाप और पुण्य इनका त्याग करने वाला ही सच्चा साधक माना गया है। गीता में वर्णित आदर्श साधक और जैन धर्म में वर्णित आदर्श साधक बहुत ही साम्य है, भगवान महावीर के बताए हुए आदर्श साधक के लक्षण ही, गीता में आदर्श भक्त या स्थितप्रज्ञ के लिए स्वीकार किये गये है। जैन दर्शन में कुन्दकुन्द ने पुण्य को सुवर्ण की बेड़ियां और पाप को लोहे की बेड़ियां कहा है। बेड़ियां लोहे की हों या सुवर्ण की, वे बंधनकारक ही होती हैं। इस प्रकार पुण्य-पाप दोनों बंधनकारक होकर किस रूप में त्याज्य हैं यह बताया है। साथ ही पुण्य-पाप की व्याख्या, पूर्वकृत पाप-पुण्य, द्रव्यपुण्य-भावपुण्य, पुण्य के नौ भेद, पुण्य का फल, पुण्य की महिमा, शुभयोग और अशुभयोग, पुण्य-पाप की चर्चा, पुण्य-पाप में अंतर, पाप कब होता है?, पाप के अठारह भेद, पाप का फल, पुण्य-पाप का अस्तित्व, पुण्य-पाप की कसौटी आदि विषयों का इन अध्यायों में विस्तृत वर्णन किया गया है। (५-६) आस्रव तत्त्व और संवर तत्त्व : जिस के योग से कर्म जीव की ओर आते हैं, उसे 'आसव' कहते हैं। मन-वचन एवं शरीर की गतिविधियों के कारण कर्म-परमाणुओं का आगमन आत्मा की ओर होता है। यही आस्रव है आम्रव के कारण ही संसार है। आस्रव का प्रमुख कारण मिथ्यात्व है। शरीर को आत्मा समझना, अधर्म को धर्म समझना, यह मिथ्यात्व है। जो 'स्व' (अपना) समझना यह मिथ्यात्व है। यही संसार-परिभ्रमण कराना है। आसव का निरोध करने वाले तत्त्व को 'संवर' कहते हैं। आग्नव और बंध ये संसार-चक्र के दो गतिमान पहिये हैं। इस संसार चक्र का विध्वंस संवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy