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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जैन दर्शन के अलावा अन्य किसी भी दर्शन में धर्म एवं अधर्म को तत्त्व को नहीं माना गया है। जीव और पुद्गल की गति का सहकारी कारण धर्म द्रव्य है। धर्म यह जीव की गति का प्रेरक या माध्यम है। अधर्म द्रव्य धर्म द्रव्य से विरुद्ध लक्षण वाला है। जीव और पुद्गल इनकी स्थिति का सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है। 'आकाश' के दो भेद हैं - (१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश । जिस आकाश में धर्म, अधर्म आदि द्रव्य हैं, वह 'लोकाकाश' है और जिसमें वे नहीं हैं, वह अलोकाकाश है। व्यावहारिक 'काल' द्रव्य के भूत, भविष्य, वर्तमान अथवा घटिका, पल, प्रहर, रात, दिन आदि भेद हैं और वे सादि और सान्त हैं। पारमार्थिक काल अविच्छिन्न रहनेवाला होने से वह नित्य है। वह अन्य द्रव्यों के परिवर्तन का सहकारी कारण है। 'पुद्गल' स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण आदि गुणों से युक्त अजीव द्रव्य को कहते हैं। उसके अणु और स्कंध ऐसे दो प्रकार हैं। छहों द्रव्यों का विस्तृत वर्णन 'विश्वप्रहेलिका' नामक पुस्तक में मिलता है।२३
जैन दर्शन में जीव और अजीव इन तत्त्वों को ही मुख्य तत्त्व माना गया है। पुण्य, पाप, आम्नव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन सात अवान्तर तत्त्वों का जीव और अजीव इनमें ही अंतर्भाव होता है। फिर भी विशेष तत्त्वज्ञान के लिए और संसार के दोष दिखाकर निःश्रेयस के मार्ग की ओर लोगों का चित्त आकर्षित करने के लिए पुण्य पाप, आम्रव, संवर और निर्जरा तथा बंध और मोक्ष इन तत्त्वों का भी स्वतंत्र विचार जैन दर्शन में किया गया है।
'अजीव' का विस्तृत वर्णन 'अजीव तत्त्व' नामक अध्याय में किया गया है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल इन पाँच द्रव्यों का वर्णन भी उसी में किया गया है। उसके साथ ही विश्वव्यवस्था, द्रव्य का स्वरूप प्रत्येक द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व, रूपी और द्रव्य, द्रव्य का क्षेत्रमापन, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, धर्म का
और अधर्म का विशिष्ट अर्थ, शास्त्रीय दृष्टिकोण से अजीव का वर्णन पुद्गल का महत्व और वैशिष्ट्य, वैज्ञानिक दृष्टि से पुद्गल आदि का विवेचन भी अजीव तत्त्व में सूक्ष्मता से किया गया है। (३-४) पुण्य-पाप तत्त्व :
उत्तम अर्थात् शुभ फल प्राप्त करानेवाला कर्म ही 'पुण्य' है। पुण्यकर्म के विरुद्ध अर्थात् अशुभ फल प्राप्त करानेवाला कर्म ही 'पापकर्म' है।
___ जैन दर्शन में पुण्य नौ प्रकार से बांधा जाता है और उसका फल बयालीस प्रकार से मिलता है। पाप अठारह प्रकार से बांधा जाता है और उसका फल बयासी प्रकार से मिलता है। इनका विस्तृत रीति से विवेचन पुण्य-पाप संबंधी अध्याय में किया गया है।
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