SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व तत्त्व से होता है। संवर अर्थात् निरोध। संवर मोक्ष मार्ग की ओर प्रस्थान करने का प्रथम चरण है। संवर का मार्ग यही जैन धर्म का प्रशस्त मार्ग है। जीवन-मृत्यु से यथार्थ स्वरूप का जिसे बोध हो गया है, वही साधक संवर मार्ग का अनुसरण करता है। -संवर की साधना अप्रमत्त आत्मा के द्वारा ही संभव होती है। जो कषायों की प्रतिक्रिया को रोकता है, वही संवर है। क्रोध आदि चार कषाय, प्रमाद और मन, वचन, काया की दुष्प्रवृत्तियों को जो रोकता है, वह 'संवर' है।२६ आस्रव और संवर तत्त्व की कल्पना सिर्फ जैन धर्म में मिलती है। इन तत्वों का अभ्यास करने पर ऐसा लगता है कि यह जैन धर्म का वैशिष्ट्य है। बौद्ध धर्म में भी 'आसव' आता है फिर भी वह जैन धर्म में प्रयुक्त 'आस्रव' से भिन्न है। पाप और पुण्य, पानी के स्त्रोत के समान जीव में प्रवाहित होते रहते हैं। इस वैज्ञानिक अवधारणा पर आधारित यह कल्पना दूसरे किसी भी दर्शन में नहीं मिलती। कुछ अच्छी बातें भी दूसरी बुरी बातों से बिगड़ सकती हैं, इसलिए उनका निरोध आवश्यक है। उदाहरणार्थ अच्छे फल सड़ न जाएँ इसलिए हवाबंद (एअर टाइट) करके भेजे जाते हैं। यही बात आस्रव और संवर तत्त्व के संबंध में भी लागू हो जाती है। आम्रवरूपी हवा संवररूपी फल को लगने न देने पर ही संवर रूपी फल सड़ेंगें नहीं। दूसरा उदाहरण ऐसा कहा जा सकता है -किसी जहाज में छेद हो गया है। उस छेद को कॉर्क लगाया तो पानी अंदर नही आ सकेगा। परंतु अगर कॉर्क (बूच) ही नहीं लगाया, तो पानी अंदर आकर पूरा जहाज डूव जाएगा। यह उदाहरण भी आम्नव और संवर तत्त्व को लागू पड़ता है। आम्रवरूपी फूटे हुए जहाज को संवर रूपी कॉर्क लगाने पर ही कर्मरूपी पानी अंदर नहीं आ सकेगा। इस प्रकार आत्मा में आनव द्वारा कर्म-प्रवेश न हो इसलिए संवर का कॉर्क लगाना चाहिए। आम्नव तत्त्व के अन्तर्गत आनव और कर्म भिन्नता, आनव शब्द का अर्थ, आस्रव की विभिन्न व्याख्याएँ, आस्रव और संवर का स्वरूप, आस्रव और संवर के भेद निराश्रवी कैसे बनें? आम्रवद्वार और बंधहेतु, आस्रव के भेद, एवं पच्चीस क्रियाएँ और संवर तत्त्व के अन्तर्गत संवर का स्वरूप, संवर के भेद, समिति, गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषह जय, द्रव्यसंवर और भावसंवर आदि का विस्तृत विवेचन किया है। Jain Education International anal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy