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________________ ३७४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इनका पूर्वापर संबंध : जैन विचारकों ने ज्ञान के बाद ही चारित्र को स्थान दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र में (२८/३०) कहा है - 'सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचरण अशक्य हैं। सूत्रकृतांगसूत्र (२/१/७) में भगवान महावीर ने कहा है कि मनुष्य ब्राह्मण हो, भिक्षु हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार हो, अगर उसका आचरण अच्छा नहीं होगा, तो वह अपने आचरण से दुःखी होगा। इस प्रकार पहले ज्ञान और बाद में चारित्र ऐसी परंपरा है। ___ चारित्र से भी श्रुत प्रधान है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है क्योंकि श्रुतज्ञान के सिवाय चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती इसलिए चारित्र श्रुत प्रधान है।५३ ज्ञान और दर्शन के संयोग से चारित्र होता है।५० मोक्षमार्ग का समन्वय : तत्त्वज्ञानी अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्धि के लिए कुछ प्रयत्न जरूर करता है। किसी को भी दुःखमय जीवन प्रिय नहीं होता। इसलिए उसे आत्म-कल्याणकारी मार्ग की अत्यंत आवश्यकता होती है। इसके लिए वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र का आश्रय लेता है। धर्मकथा के द्वारा कमों की निर्जरा करते हुए और प्रवचन द्वारा जिनशासन और सिद्धांत की प्रभावना करते हुए वह शुभफल देनेवाले कमों का बंध करता है, और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्र रूप रत्नत्रय को स्वीकार करता है। अन्त में वह शुद्ध-बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण प्राप्त करके सब दुःखों का नाश कर देता है। वैसे तो इन तीनो को ही मोक्ष के साधन कहा है, परंतु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने से अथवा सम्यक्-चारित्र और सम्यग्ज्ञान होने से अथवा सम्यग्दर्शन व सम्यक्-चारित्र होने से, मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती। ये तीनों के समन्वित होने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्-चारित्र, इन रत्नत्रयों में से कोई भी एक ही मोक्ष-मार्ग नहीं है, परन्तु ये तीनों समन्वित होकर ही मोक्षमार्ग है। क्योंकि किसी भी मार्ग के जान लेने पर ही उस पर श्रद्धा या रुचि होती है और बाद में उसके अनुसार आचरण किया जाता है। आचरण के बिना ज्ञान, और श्रद्धा सार्थक नहीं होते है। व्यवहार दृष्टि से भी इन तीनों को मिलकर ही मोक्ष मार्ग कहा गया है। वस्तुतः ये अखण्ड चैतन्य के विशेष पक्ष हैं, फिर भी इन तीनों का अपना-अपना अलग अस्तित्व है। ये रत्नत्रय युगपद् रूप से ही मोक्ष-मार्ग है। यह समझने के लिए रसायन का उदाहरण दिया जाता है - औषधि से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार उस पर श्रद्धा, उसके संबंध में ज्ञान और उसकी सेवनरूप क्रिया आवश्यक है उसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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