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________________ ३६३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ऐसा कहा जाता है कि - श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था। इसीलिए वे सारे शत्रुओं को पराजित करके तीनों खण्डों के अधिपति बने। इसी प्रकार यदि आत्मरूपी कृष्ण के पास सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शन चक्र होगा तो वह भी कषायरूपी शत्रुओं को पराजित करके तीनों लोकों का स्वामी बन सकेगा। धर्मरूपी मोती सम्यग्दर्शनरूपी सीप में ही उत्पन्न होता है। प्रायः सब दर्शनों ने सम्यग्दर्शन की महिमा बताई है। न्यायदर्शन ने तत्त्वज्ञान को 'सम्यग्दर्शन' कहा है। सांख्यदर्शन ने भेदज्ञान को 'सम्यग्दर्शन' कहा है। योगदर्शन ने विवेकख्याति को, बौद्ध दर्शन ने क्षणभंगुरता को और चार आर्यसत्यों के ज्ञान को, वेदों ने ऋत को और गीता ने योग को 'सम्यग्दर्शन' कहा है। इस पर से यह स्पष्ट होता है कि जैन संस्कृति के इस मौलिक तत्त्व को सभी विचारको ने महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। सचमुच सम्यग्दर्शन आत्म उत्क्रांति का द्वार है, इसीलिए वह महत्त्वपूर्ण है। सम्यक् ज्ञान : सम्यक् ज्ञान यह मोक्ष मार्ग रूपी सोपान की दूसरी सीढ़ी है। आत्मतत्व के स्वरूप का ज्ञान अथवा आत्मा के कल्याण के मार्ग को जान लेना "सम्यग्ज्ञान" हैं। आत्मा के स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए आत्मा के साथ संबंध बनाने वाले जड़ (कर्म) द्रव्य का ज्ञान होना भी आवश्यक है। पुद्गगल द्रव्य के बिना आत्मा के स्वस्वरूप का ज्ञान भी नहीं होगा। और आत्मकल्याण भी नहीं होगा। आत्मज्ञान के बिना सारी विद्वत्ता व्यर्थ है। संसार के सारे क्लेश अज्ञान पर आधारित हैं। उस अज्ञान को दूर करने के लिए आत्मज्ञान आवश्यक है और आत्मज्ञान प्राप्त करना यही वास्तविक मोक्ष है।०५। तत्त्वों को जानना यही 'ज्ञान' है। इसे 'भावसाधन' कहते हैं। जो वस्तु स्वरूप के स्वरूप जानता है या जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप जाना जाता है या जिसमें वस्तु स्वरूप जाना जाता है, उसे "ज्ञान" कहते हैं। ज्ञान यह आत्मा का निजगुण है। ज्ञान से आत्मा भिन्न नहीं है, आत्मा और ज्ञान अभिन्न ही है। आत्मा में स्वभावतः अनन्त ज्ञानशक्ति विद्यमान है। परन्तु ज्ञानावरण के कारण वह पूर्ण प्रकाशित नहीं हो पाती है। जैसे-जैसे आवरण नष्ट होता है, वैसे-वैसे ज्ञानप्रकाश भी बढ़ता जाता है। आत्मा की कभी भी ऐसी अवस्था नहीं होती कि उसमें किंचित् भी ज्ञान नहीं हो। (साधक) सुनकर ही कल्याण का अर्थात् आत्महित का मार्ग जान जाता है। उसी प्रकार सुनकर ही पाप का या अहित का मार्ग जान सकता है। इस प्रकार हित और अहित इन दोनों को श्रुतज्ञान से ही जाना जाता है। परंतु इनमें से जो श्रेयस्कर हो, उसी का आचरण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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