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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
उसमें फंसता नहीं है। वह स्वयं को कैदी मानता है और संसार से मुक्त होने की इच्छा करता है। साथ ही वह दूसरे जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है। वह वस्तुतः द्रष्टा होता है, इसीलिए वल्लभ-प्रवचन में कहा गया है
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति ।।
सम्यग्दर्शन के अभाव में जो क्रियाएँ की जाती हैं, वे सब शरीर पर होने वाले फोड़े के समान दुःखकारक और आत्महित के लिए व्यर्थ हैं। मिथ्यादृष्टि का तप केवल देह दण्डन है। मिथ्यादृष्टि का स्वाध्याय भी निष्फल होता हैं. क्योंकि उसका ज्ञान कदाग्रह बन जाता है। उसके दान और शील भी निन्दनीय होते हैं और तीर्थयात्राएँ भी व्यर्थ होती हैं।
मानवता का सार ज्ञान है। ज्ञान का सार सम्यग्दर्शन है। आत्मा को अज्ञान रूपी अंधःकार से दूर कर आत्मभाव के आलोक से आलोकित विवेकयुक्त दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है। दूसरे शब्दों में तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। व्यावहारिक दृष्टि से तीर्थकर (जिन) की वाणी में, जन के उपदेशों में जिसकी दृढ़निष्ठा है, वही सम्यग्दर्शी है।
धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। अगर मूल में ही दोष होगा, तो सब क्रियाकाण्ड संसार की वृद्धि ही करेगा। सम्यग्दी आत्मा पाप का अनुबंध नहीं करता।' जो सम्यग्दर्शन से युक्त है, वह नवीन कर्म का बंध नहीं करता है और जो सम्यग्दर्शन से रहित है, वह संसार में परिभ्रमण करता है।०२
चारित्र से भ्रष्ट हुआ आत्मा कदाचित् कालांतर में निर्वाण प्राप्त कर भी ले, परन्तु सम्यग्दर्शन से रहित आत्मा निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता।०३
सम्यग्दर्शन के अभाव में की हुई दया सच्ची दया नहीं है और विनय यह सच्चा विनय नहीं है। सम्यग्दर्शन का अर्थ है विशुद्ध दृष्टि। पाश्चात्य विचारक आर० विलियम्स के मतानुसार तीर्थकरों द्वारा बताए हुए मार्ग पर श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है।
जिस प्रकार रात्रि के अंधकार को दूर किए बिना सहस्त्ररश्मि सूर्य उदित नहीं होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी अंधकार को नष्ट किए बिना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता! जब आत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है, तभी आत्मा जीव और अजीव के भेद को जानता है। सम्यग्दर्शन के बाद ही आत्मा समझने लगता है कि- 'मैं जड़ नहीं हूँ, चेतन हूँ। मेरा स्वरूप शुद्ध चेतन है। मुझमें राग, द्वेष आदि जो विकृतियाँ हैं, वे सारी जड़ के संसर्ग से आई हैं। मैं वर्तमान में सब कमों से बद्ध हूँ, परन्तु उन कमों को नष्ट करके मैं एक दिन निश्चित मुक्त बनूँगा।' इस प्रकार की निष्टा सम्यक्त्वी के अंतर्मन में जागृत होती है।
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