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________________ ३६१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व सम्यग्दर्शन यह महान रत्न सब जीवों का आभूषण है, साथ ही मोक्ष प्राप्त होने तक आत्मकल्याण करने में सहायक है। सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महान रत्न है। सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महाऋद्धि है। सम्यक्त्व सारी सिद्धियों को पूर्ण करनेवाला है। सम्यक्त्व गुण से युक्त जीव इन्द्र और चक्रवर्ती के द्वारा भी वन्दनीय है। व्रतरहित होते हुए भी वह अनेक प्रकार के उत्तम स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है।" श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रतीति ये सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची शब्द हैं। सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है - १) निसर्ग से और २) अधिगम से। निसर्ग से यानी स्वाभाविक रीति से, पूर्वजन्म के कर्म संस्कारों के क्षीण होने पर निःसर्गज सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। अधिगम यानी गुरु के उपदेश से, धर्मग्रंथों का पढ़ने से या बाह्य किसी भी निमित्त से अधिगमज सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। दोनों सम्यग्दर्शनों के लिए अन्तरंग हेतु समान हैं। निसर्ग-सम्यग्दर्शन को पहले कभी परोपदेश का निमित्त प्राप्त हुआ होता है।" सम्यग्दर्शन बीज है। इसके होने पर ही साधनारूपी वृक्ष पर ज्ञान का सुगंधित फूल और चारित्र का मीठा फल लग सकता है। सम्यग्दर्शन यह साधनारूपी भव्य महल की नीव है। अगर नींव मजबूत नहीं होगी, तो ज्ञान और चारित्ररूपी महल टिकेगा नहीं। यदि "एक" का अंक नहीं हो तो कितने ही शून्य लिखे, उन शून्यों की कुछ भी कीमत नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में की हुई साधना की कुछ भी कीमत नहीं । सम्यग्दर्शन यह "एक" के अंक के समान ओर सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र उसके पश्चात् लगे हुई शून्य के समान - जब तक सम्यगदर्शन की प्राप्ति नहीं होती, तब तक सब आचरण, सारे क्रियाकाण्ड और अनुष्ठान व्यर्थ हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में सभी धार्मिक कर्मकाण्ड हस्तिस्नान के समान व्यर्थ हैं। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर आत्मा की शुद्धि होती है। हिताहित, कर्तव्य-अकर्तव्य और हेय-उपादेय का विवेक प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन रूपी सूर्य का उदय होते ही अज्ञान-अंधकार नष्ट हो जाता है। जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है, वह किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। विषय और कषाय से वह निवृत्त होता है। उसकी आत्मा में समता का अद्भुत संचार होता है। सम्यग्दर्शन ही आत्मा का परम मित्र है। जिसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त हुई है, वह प्रत्येक बात को सरलता से लेता है और उल्टी बात को भी सहज रूप से लेता है, जबकि मिथ्यादृष्टि सरल बात को भी विपरीत रूप में ग्रहण करता है। बुराई में से अच्छा लेना, शान्तिपूर्वक कष्ट सहन करना यह सम्यग्दृष्टि का गुण है। सम्यग्दृष्टि आत्मा संसारी जीवन में रहकर भी आसक्त नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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