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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
सम्यक्-ज्ञान पूर्वक सम्यग्चारित्र-मूलक तप, नियम, संयम में स्थित होकर आत्मा कर्म-मल से विशुद्ध बनता है और साधक जीवन पर्यंत स्थिरचित्त बनकर विचरण करता है।१०
__ जिस प्रकार धागेवाली सुई कहीं भी गिरने पर गम नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र अर्थात् शास्त्र-ज्ञान युक्त जीव संसार में नष्ट नहीं होता है अर्थात् परिभ्रमण नहीं करता है।
__ जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, साथ ही आत्मा विशुद्ध बनता है, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहा है।१२।।
जिससे जीव राग-द्वेष से विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है, जिससे मैत्री-भाव से भावित होता है, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहा है।३
(हे भव्य!) तू इस ज्ञान में हमेशा लीन रह, इसी में संतुष्ट रह, इसी में तृप्त रह। इसीसे तुम्हें उत्तम सुख प्राप्त होगा।
आत्मा क्या है ? कर्म क्या है ? बंधन क्या है ? कर्म आत्मा के साथ बद्ध क्यों होते हैं आदि विषयों का यथार्थ परिज्ञान ही 'सम्यग्ज्ञान' है और अयथार्थ ज्ञान 'मिथ्याज्ञान' है।
ज्ञान यह तीसरी आँख के समान है। उसके अभाव में भक्त भगवान नहीं बन सकता, जीव शिव नहीं बन सकता, आत्मा भवबंधन से मुक्त नहीं हो सकता, आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता, नर नारायण नहीं बन सकता। सुप्रसिद्ध लेखक शेक्सपियर ने कहा है कि ज्ञान के पंखों द्वारा हम स्वर्ग तक उड़ सकेंगें। कन्फ्यूशियस ने ज्ञान को आनंद-प्रदाता कहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान ही सच्चे सुख का कारण है। जब तक सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक विकारों का विनाश भी नहीं होता और विचारों का विकास भी नहीं हो सकता।
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन दोषों से रहित तथा नय और प्रमाण से होनेवाले जीवादि पदार्थ का यथार्थ ज्ञान ही 'सम्यग्ज्ञान' है। संक्षेप में अथवा विस्तार से तत्व के यथार्थ स्वरूप को जानना, इसे ही विद्वान लोग 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं।
___ आत्मा और अनात्मा के यथार्थ स्वरूप को संशय, विमोह एवं विभ्रमरहित होकर जानना यही 'सम्यग्ज्ञान' है। सम्यग्ज्ञान के सविकल्प और साकार होने के कारण अनेक भेद होते है।१५
शरीर, मन आदि सभी पौद्गलिक वस्तुएँ आत्मा से भिन्न हैं। देह और जीव का अथवा पिता और पुत्र आदि का यथार्थ में कुछ भी संबंध नहीं है, यह जो जानता है, वही जानता हैं।"६ जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य और
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