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जैन दर्शन के नव तत्त्व
पूर्व में बताए अनुसार मुक्ति के लिए जिनका ज्ञान आवश्यक है, वे नवतत्त्व निम्नलिखित हैं:
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(१) जीव ( २ ) अजीव (३) पुण्य ( ४ ) पाप (५) आस्रव ( ६ ) संवर (७) निर्जरा (८) बंध तथा (६) मोक्ष ।
विश्व व्यवस्था और तत्त्व - प्रतिपादन के हेतु अलग-अलग हैं । विश्व-व्यवस्था का ज्ञान न होने पर भी तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, परन्तु तत्त्वज्ञान के अभाव में विश्वव्यवस्था का संपूर्ण ज्ञान निरर्थक है। इससे यह सिद्ध होता है कि मानव का अन्तिम ध्येय मोक्ष है और उसके लिए तत्त्वज्ञान अपरिहार्य
है ।
विज्ञान के साथ तत्त्वज्ञान का विकास नहीं हुआ तो मानव दुःखमुक्त हो ही नहीं सकेगा। इसके लिए, जिस प्रकार वैद्यक शास्त्र में चतुर्व्यूह के रूप में बीमारी के कारण, आरोग्य और उसके उपाय बताए गये हैं, उसी प्रकार मोक्षप्राप्ति के लिए संसार, संसार का कारण, मोक्ष और मोक्ष के उपाय इस मूलभूत चतुर्व्यूह का आकलन होना अत्यंत आवश्यक हैं। रोगी को सर्वप्रथम स्वयं को रोगी समझना आवश्यक है। जब तक रोगी को रोग की जानकारी नहीं होती, तब तक वह वैद्यकीय जाँच के लिए प्रवृत्त नहीं होता । रोग की जानकारी होने पर अपना रोग किन दवाइयों से नष्ट होगा यह बात उसे जान लेनी चाहिए । रोगों की जानकारी उसे वैद्यकीय जाँच के लिए प्रवृत्त करती है । रोग किसी एक विशिष्ट कारण से या अपथ्य सेवन से उत्पन्न हुआ है यह भी उसे मालूम होना चाहिए। इससे वह भविष्य में अपथ्य आहार-विहार को त्याग कर स्वयं को रोग से दूर रख सकता है रोग नष्ट करने के उपाय के लिये औषधोपचार का ज्ञान आवश्यक है। यही ज्ञान रोगों का समूल नाश कर स्थिर आरोग्य प्राप्त करा सकता है।
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उसी प्रकार ( १ ) जीव कर्मबद्ध है, (२) उसकी कर्मबद्धता के कारण हैं (३) वे कारण टूट सकते हैं, नष्ट हो सकते हैं (४) कारण नष्ट होने के और बंधन टूटने के मार्ग हैं। इन मूलभूत चार बिन्दुओं पर तत्त्वज्ञान की परिसमाप्ति . भारतीय दर्शन द्वारा की गई है।
इसी प्रकार दुःख-मुक्ति के लिए मानव मात्र को नवतत्त्वों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है । संसारी जीव अनेक प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक पीडाएँ भोगता है और उनसे मुक्त होने की इच्छा करता है। इसके लिए उसे संसाररूपी रोग के बढ़ने का कारण क्या है, इसका ज्ञान होना आवश्यक है। यह
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