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________________ १३ जैन दर्शन के नव तत्त्व रोगवृद्धि किस प्रकार रुक सकती है पुराना रोग किस प्रकार दूर हो सकता है इसका ज्ञान भी आवश्यक है। नीरोगी अवस्था का सुख कैसा होता है ? संसार के सुख-दुःखों का कारण क्या है? इन सब प्रश्नों के उत्तर नवतत्त्वों में मिलते हैं । संसार यानी सम्+सृ। जन्म से मृत्यु तक जाना और पुनः जन्म प्राप्त होना । संसार का अर्थ संसरण करना होता है। इस प्रकार जन्म - मृत्यु के फेरे में घूमते रहना ही संसार है । ' जो आत्मिक आनन्द के शोधक हैं और शान्ति के उपासक हैं, उन्हें नवतत्त्वों का रहस्य जानकर चिन्तन-मनन करना चाहिए। नवतत्त्वों का ज्ञान आत्मा की उन्नति का विज्ञान है। यह अनेकों जन्मों का स्पष्ट चित्र है । जैन-दर्शन के नवतत्त्व ऊपर निर्दिष्ट चार बिन्दुओं पर आधारित हैं। नवतत्त्वों में सर्वप्रथम तत्त्व "जीव" है और अन्तिम तत्त्व “मोक्ष” है। जीव को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा इसका मार्ग नवतत्त्वों में दिखाई देता है 1 जीवतत्त्वों के निरूपण के द्वारा, मोक्ष का अधिकारी जीव है, यह बताया गया है । अजीव तत्त्व के निरूपण के द्वारा यह बताया गया है कि संसार में ऐसा एक तत्त्व है जो जड़ है अतः उसका और मोक्ष का कोई संबंध नहीं है। पुण्य तत्त्व से मोक्ष - मार्ग का साधन प्राप्त होता है । पाप तत्त्व से उसमें अन्तराय ( रुकावट ) होता है यह भी उसमें बताया गया है । बन्ध तत्त्व से मोक्ष के विरोधी भाव और आव तत्त्व से बंध (दुःख) का कारण बताया गया है। संवर तत्त्व से निरोधमार्ग है और निर्जरा तत्त्व से मोक्ष का क्रम बताया गया है । इन नवतत्त्वों के ज्ञान से आत्मा परमात्मा बन सकता है। इनके ज्ञान के बिना बाहूह्य और आन्तरिक विश्व का आकलन नहीं हो सकता । विज्ञान के लिए भी उसे समझने हेतु नवतत्त्वों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार विज्ञान और तत्त्वज्ञान की जोड़ी अविभाज्य है । मुख्य तत्त्व दो :- जीव और अजीव मुख्य तत्त्व दो हैं, इस प्रकार के विचार द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय, समयसार, षड्दर्शनसमुच्चय, तत्त्वार्थसूत्र, ठाणांग, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र ( पत्रवण्णा), उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगम तथा आगमेतर ग्रंथों में पाये जाते हैं । जीव और अजीव इन दो तत्त्वों के अलावा अन्य तत्त्व इन दोनों के संयोग और वियोग से बने हुए हैं। आस्रव, बन्ध, पुण्य तथा पाप - ये चार तत्त्व जीव अजीव के संयोग से बने हैं। संवर, निर्जरा, मोक्ष ये तत्त्व अजीव के वियोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org د
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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