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________________ ३५३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व संसार के त्रिविध तापों से मुक्त होने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र- ये तीनों अत्यंत आवश्यक हैं। ये तीनों समन्वित रूप से मोक्ष मार्ग हैं। सम्यक्त्व : सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक-चारित्र इन तीनों मोक्षमागों को जानने से पहले 'सम्यक्त्व' का अर्थ जानना अत्यंत आवश्यक है। जिस प्रकार कमलों से झील, चंद्रमा से रात, कोयल से बसन्त ऋतु शोभायमान होती है, उसी प्रकार धर्म का आचरण सम्यक्त्व से सुशोभित होता है। जिस प्रकार बुनियाद (नीव) के बगैर इमारत खड़ी नहीं रह सकती, वारिश के बगैर खेती नहीं हो सकती, सेनापति के बगैर सेना लड़ नहीं सकती, उसी प्रकार सम्यक्त्व के बगैर धर्म का आचरण यथार्थ रूप से नहीं होता। सम्यक्त्व रहित ज्ञान से और सम्यक्त्वरहित चारित्र से मोक्ष नहीं मिलता। जब आत्मा सम्यक्त्वयुक्त होता है, तभी उसका विकास होने लगता है। सम्यक् पद को “त्व" प्रत्यय लगने से सम्यक्त्व शब्द बना है। सम्यक्त्व के सम्यक्ता, आत्मा की विशुद्धि, शुद्ध परिणाम आदि अर्थ होते हैं। जीव, अजीव आदि नौ तत्वों को जो यथार्थ रूप से जानकर उनपर श्रद्धा रखता है, उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। जीव आदि नव-पदार्थों पर स्वयं या दूसरे के उपदेश से भावपूर्वक श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। जिस प्रकार कमलपत्र पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषय से लिप्त नहीं होता।" सम्यक्त्वहीन व्यक्ति ने हजारों-करोड़ वर्षों तक उग्र तप किया हो तो भी उसे बोधिलाभ प्राप्त नहीं होता। सम्यक्त्व का शब्दशः अर्थ है सच्चाई। ज्ञान और चारित्र में जो सच्चाई है, वही सम्यक्त्व है। सच्चाई के बगैर ज्ञान और चारित्र का कोई मूल्य नहीं हैं। सचाई यह अतीव मूल्यवान है। सम्यक्त्व का दूसरा नाम है सम्यग्दर्शन। उसका अर्थ है सच्ची श्रद्धा। सच्ची श्रद्धा यानी विवेकपूर्वक श्रद्धा। कर्त्तव्य-अकर्तव्य अथवा हेय-उपादेय पर विवेकपूर्वक श्रद्धा से साधना के सन्मार्ग में जो दृढ़विश्वास होता है, उसके प्रकट होते ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनों की सहायता से सम्यक् चारित्र का विकास होता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। देव के प्रति देवबुद्धि, गुरु के प्रति गुरुबुद्धि और धर्म के प्रति धर्म बुद्धि शुद्ध प्रकार से होने पर वह 'सम्यक्त्व' होता है। संसार में सम्यक्त्वरूपी रत्न से अधिक मूल्यवान दूसरा रत्न नहीं है। सम्यक्त्वरूपी मित्र से श्रेष्ठ दूसरा मित्र नहीं है। सम्यक्त्वरूपी बंधु से श्रेष्ट दूसरा बंधु नहीं। सम्यक्त्व का लाभ ही सब से बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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