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________________ ३५२ जैन दर्शन के नव तत्त्व मोक्षमार्ग वस्तुएँ यात्री जब यात्रा के लिए निकलता है, तब अपने साथ मुख्यतः तीन है १) भोजन २) कपड़े और ३) बिछोना । इन तीन वस्तुओं में से एक भी वस्तु की कमी होगी, तो उसकी यात्रा सुखरूप नहीं होगी । उसी प्रकार मोक्ष की यात्रा के लिए साधक को तीन बातों की आवश्यकता है, वे हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । इनमें से एक भी बात नहीं होगी, तो साधना-पथ शान्तिपूर्ण नहीं हो सकेगा। साधना - पथ पर आरूढ़ मुमुक्षु को इन तीनों अलौकिक रत्नों की आवश्यकता है 1 हृदय बुद्धि और शरीर के समान साधना के क्षेत्र में भी रत्नत्रय की आवश्यकता है। अपने जीवन में जिस प्रकार हृदय, बुद्धि और शरीर इन तीनों की अपने स्थान पर आवश्यकता है, उसी प्रकार साधनामय जीवन में हृदय के द्वारा साध्य समयग्दर्शन, बुद्धि के द्वारा साध्य सम्यग्ज्ञान और शरीर के सब अंग- उपांगों द्वारा साध्य सम्यक् चारित्र की नितान्त आवश्यकता है। एक का भी अभाव होगा, तो भी नहीं चलेगा। अगर शरीर अस्वस्थ होगा, तो बुद्धि और हृदय में गड़बड़ी होगी, वे अच्छी तरह से काम नहीं कर सकेगें। अगर बुद्धि में विकार आए तो व्यवहार में पागलपन और यदि शरीर तथा हृदय निष्ठापूर्वक काम नहीं करेगे तो भावनाएं विकृत होंगी, पुनः यदि व्यक्ति स्वार्थी और क्रूर बना, तो बुद्धि और शरीर भी अपना कार्य व्यवस्थित रूप से नहीं कर सकेंगे। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का साधनामय जीवन में व्यवस्थित रूप से होना अत्यंत जरूरी है। एक के भी अभाव में साधना नहीं हो सकेगी। साधनामय जीवन में अगर केवल चारित्र ही होगा और ज्ञान, दर्शन नहीं होंगं, तो मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकेगी। अंधा और लंगड़ा दोनो मनुष्य एक-दूसरे के सहकार से योग्य जगह पहुँच सकेंगे। इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों के संयोग से ही मोक्ष मिल सकता है। अकेला ज्ञान लंगड़ा है, वह चलने में असमर्थ है। अकेला चारित्र अंधा है, उसे रास्ता नहीं दिखाई देता । अकेला दर्शन भी व्यर्थ है । तीनों के संयोग से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आवश्यकता है। सम्यक् दर्शन के बगैर ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो नहीं सकता। वह अज्ञान ही रहता है। ज्ञान के बगैर चारित्र जीवन में सम्यक् रूप से नहीं आ सकता । चारित्ररहित को कर्मबंधन से मुक्ति नहीं मिलती, और मुक्त हुए बिना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता । ज्ञान के द्वारा हेय, ज्ञेय और उपादेय का बोध होता है । दर्शन से श्रद्धा होती है और चारित्र से तत्त्व जीवन में आते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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