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________________ ३५४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व लाभ है। जो भव्य प्राणी अन्तर्मुहूर्त (अड़तालीस मिनट से कम) के लिए भी निर्मल सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, वह चिरकाल तक संसार में नहीं भटकता। उसे अन्ततः मोक्ष प्राप्त होता ही है। जैन धर्म में सम्यक्त्व पर बहुत बल दिया गया है। सम्यक्त्व यह आत्मा का गुण है। सम्यक्त्व यह बीज है। जिस प्रकार बीज के बगैर अंकुर नहीं फूट सकता और बाद में वृक्ष भी खड़ा नहीं रहता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के अलावा जितनी क्रिया है या जितना धर्मकार्य है, वह सब व्यर्थ है। सम्यक्त्व का सरल अर्थ है- विवेक दृष्टि। प्रत्येक कार्य में विवेक चाहिए। सम्यक्त्व का दूसरा अर्थ है - श्रद्धा। देव, गुरू और धर्म इनपर पूर्ण विश्वास ही 'सम्यक्त्व' है। सम्यक्त्व के विपरीत मिथ्यात्व है। देव, गुरु और धर्म इनमें इच्छित गुण न होने पर भी उन्हें देव, गुरु और धर्म के रूप में स्वीकार करना यह मिथ्यात्व है। जिस मनुष्य में सम्यकत्व होता है, उसका अंतःकरण दयालु और परोपकार से युक्त होता है। संयत, नियमित और नियंत्रित जीवन यही श्रेष्ट जीवन है। जो अपनी अनियंत्रित इच्छानुसार चलता है, इन्द्रियों की अमर्यादित वृत्तियों का स्वच्छन्द उपयोग करता है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं है। वह दुःखों के भयंकर परिणामों से बच नहीं सकता। राग, द्वेष और मोह यही संसार-परिभ्रमण का मूल है, इसलिए उनसे दूर रहकर ही अपने शाश्वत लक्ष्य 'मुक्ति' तक पहुँचा जाता है। सम्यक्त्व यह मुक्ति का एकमेव साधन है। जीवादि नवतत्वों के सम्बन्ध में भावपूर्ण श्रद्धा यही 'सम्यक्त्व' है। सम्यक्त्व के निम्नलिखित दस भेद हैं - निसर्गरुचि उपदेशरुचि आज्ञारुचि सूत्ररुचि बीजरुचि अभिगमरुचि विस्ताररुचि ८) क्रियारुचि संक्षेपरुचि १०) धर्मरुचि १) निसर्गरुचि : स्वविवेक से या स्वयं के यथार्थ ज्ञान से जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आम्रव-संवरादि तत्त्वों के प्रति रुचि को (श्रद्धा को) 'निसर्गरुचि' कहते हैं। २) उपदेशरुचिः अन्य छद्मस्थ या अहंत व्यक्ति के उपदेश से जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा रखने को 'उपदेशरुचि' कहते हैं। ३) आज्ञारुचिः जिसके राग, द्वेष, मोह और अज्ञान नष्ट हो गये हैं, ऐसी व्यक्ति की आज्ञा पालन में निष्ठा रखना, इसे 'आज्ञारुचि' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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