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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
बौद्ध मत के अनुसार निर्वाण या मोक्ष जीवनकाल में ही प्राप्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त अवस्था में व्यक्ति राग-द्वेष आदि पर विजय प्राप्त कर अपने कर्मबंध का विनाश करने में समर्थ बनता है। जिस प्रकार बीज जल जाने पर अंकुर का निर्माण नहीं होता, उसी प्रकार कर्मासक्ति के अभाव में पुनर्जन्म की प्राप्ति नहीं होती ।
बौद्ध दर्शन में कहा है कि - दीपक बुझने पर उसकी ज्योति जमीन की ओर नहीं जाती और आकाश की ओर भी नहीं जाती, दिशा और विदिशाओं में भी नहीं फैलती, तेल समाप्त होने पर ज्योति शांत होती है, उसी प्रकार जीव जव निर्वाण प्राप्त करता है, तब वह भी पृथ्वी, आकाश या किसी भी दिशा की ओर नहीं जाता, परन्तु क्लेशक्षय होने से शांत हो जाता है।
निर्वाण के संबंध में भगवान बुद्ध कहतें हैं - भिक्षुओ। अ-जाति, अ-भूत, अ-कृत (असंस्कृत) इन निषेधात्मक विशेषणों की सहायता से भी किसी भावात्मक निर्वाण को तभी सिद्ध किया जा सकता है, जब उस आनन्द को भोगनेवाला कोई एक नित्य ध्रुवात्मा होगा। किन्तु ऐसा नित्य ध्रुवात्मा नहीं है, जिस अवस्था में तृष्णा क्षीण हो जाती है। आसव-चित्तमल (भोग, जन्मांतर और विशेष मतवाद की तृष्णा) नहीं रहते है। उस अवस्था को निर्वाण कहा गया है।
___ बौद्ध मत के अनुसार अर्हत् अनासक्त बनकर कर्म करते रहते हैं, इसलिए वे कर्मबंधन में नहीं फंसते। भगवद्गीता में भी "मा ते संगोऽसक्तस्त्यकर्माणि" इस वाक्य मे यही कहा गया है। बौद्ध मतानुसार मुक्त पुरुष दो प्रकार के हैं - १) जीवनमुक्त जीवन को धारण करके रहते हैं। २) दूसरे वे जिनका सांसारिक जीवन समाप्त हो गया है और जिन्होंने षडायतन-शरीर का परित्याग कर दिया हैं। वेदान्त दर्शन :
. इस दर्शन के अनुसार जीव और ब्रह्म का तादात्म्य यही 'मुक्ति' है। चित्सुखाचार्य के अनुसार “परमानन्द का साक्षात्कार" यही मोक्ष है। पद्मपादाचार्य मिथ्याज्ञान के अभाव को मोक्ष मानते हैं। सांख्य और जैनदर्शन के समान वेदान्त दर्शन ने भी जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति के रूप में मुक्ति के दो भेद माने है। उनका कहना है कि - "तत्त्वमसि" वाक्य के द्वारा जीव और ब्रह्म की एकता का ज्ञान होने से जब परब्रह्म का साक्षात्कार होता है तब अज्ञान और उसके कार्य का विनाश होने पर संशय, विपर्यय और संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। इस अवस्था में ब्रह्मवेत्ता जीवित रहते हुए भी सब सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है।
__ इस प्रकार ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को 'जीवनमुक्त' कहते हैं। जीवनमुक्त पुरुष का शरीर नष्ट होने पर उसे 'विदेहमुक्त' कहते हैं। विदेहमुक्त को 'परममुक्त' भी
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