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________________ ३४२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व इसे ही भवबन्ध कहा गया है। भवबन्ध के कारण ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में घूमता है। इसलिए मानव ऐसे सांसारिक बंधनों से मुक्ति की इच्छा करता है। इनसे मुक्ति प्राप्त होना यही 'मोक्ष' है। 'शास्त्रदीपिका' में कहा है - त्रिविधस्यापि बन्धनस्यात्यन्तिको विलयो मोक्षः।१६ न्याय-वैशेषिक दर्शन : इस दर्शन ने दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति को 'मोक्ष' माना है, तथापि उसने शरीर-विच्छेद को मोक्ष नहीं माना है। उनके मत में भी तत्त्वज्ञान ही मोक्ष का कारण है। इस दर्शन में अष्टांगयोग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) के अनुष्ठान से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति मानी गई है। अष्टांगयोग द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा का साक्षात्कार होता है और आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष का कारण है। 'आत्मसाक्षात्कारो मोक्षहेतुः । अमरभारती -पृ. १००' । धर्म और अधर्म इनकी ओर अनुक्रम से इच्छा और द्वेष के कारण प्रवृत्ति होती है। उससे सुखरूपी और दुःखरूपी संसार प्राप्त होता है। जिस पुरुष को तत्त्वज्ञान प्राप्त बोता है, उसमें इच्छा, द्वेष आदि भाव नहीं रहते। वे न रहने से धर्म-अधर्म नहीं हेता, परिणामतः शरीर और मन का संयोग नहीं होता, जन्म-मरण नहीं होता और संचित कर्म का निरोध होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। जिस प्रकार दीपक बुझने पर अंधेरा हो जाता है, उसी प्रकार धर्म-अधर्म के बंधन नष्ट होने पर जन्म-मरण का संसार चक्र नष्ट हो जाता है इसलिए षट् पदार्थों का ज्ञान होने से अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती और संचित धर्म-अधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि विपर्यय यह बन्ध का कारण है और तत्त्वज्ञान यह मोक्ष का कारण है। तत्त्वज्ञान से भ्रम का निरास होने पर जन्म-मरण और दुःखों का नष्ट हो जाना, इसे ही मोक्ष कहते हैं। आत्यन्तिक दुःख-निवृत्ति को ही नैयायिक मोक्ष कहते हैं। वैशेषिकसूत्र में कणादऋषि ने कहा है कि 'धर्म ऐसा पदार्थ है कि उससे सांसारिक उत्थान और पारमार्थिक निःश्रेयस ये दोनों प्राप्त होते हैं। बौद्ध दर्शन : इस दर्शन के अनुसार दुःख निरोध को ही 'निर्वाण' कहा है। सब दुःखों के कारणों का विनाश ही निर्वाण या मोक्ष है। बौद्ध-दर्शन में भी निर्वाण के संबंध में 'दुःखनिरोध' की व्याख्या 'दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति' ऐसी दी हुई है। बौद्ध अविद्या को बंध और विद्या को मोक्ष मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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