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________________ ३४१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व विभिन्न दर्शनों में मोक्ष अलग-अलग दर्शनों में 'मोक्ष' के लिए निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति, निवृत्ति, कैवल्य आदि शब्दों का उपयोग हुआ है। इसका मुख्य अर्थ शांति या दुःखनिवृत्ति है। चार्वाक के अलावा प्रायः सारे भारतीय दर्शनों में अविद्या या अज्ञान के संपूर्ण नाश को 'मोक्ष' कहा है। सांख्य दर्शन सांख्य दर्शन के अनुसार मोक्ष का साधन ज्ञान है और अविद्या या अज्ञान का विनाश ही मोक्ष है। धर्माचरण से ब्रह्म, सौम्य आदि उच्च देव योनियों में जन्म मिलता है। अधर्म के आचरण से पशु आदि नीच योनियों में जन्म मिलता है। प्रकृति और पुरुष में विवेक ज्ञान के कारण मोक्ष प्राप्त होता है। उसी तरह प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञान से बन्ध होता है। जब तक पुरुष को बुद्धि, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द, अहंकार जन्य पाँच ज्ञान-इन्द्रियाँ, पाँच कर्म इन्द्रियाँ तथा भौतिक शरीर आदि अनात्म पदार्थों में 'मैं सुनता हूँ, मैं देखता हूँ' ऐसा भ्रम होता है, और वह शरीर को ही आत्मा मानता है, तब तक उसे इस विपर्यय ज्ञान से बन्ध होता है। लेकिन जब उसे प्रकृति और पुरुष का भेद ध्यान में आता है, तब वह पुरुष के अलावा यह सब वस्तुओं को प्रकृतिकृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होता है और उसे 'मैं नहीं, यह मेरा नहीं' ऐसा विवेक जाग्रत होता है, तब ऐसे सम्यग्ज्ञान से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन त्रिविध दुःखों की प्राप्ति का कारण अविद्या है। अविद्या का विनाश विवेक से होता है। उपरोक्त के विविध दुःखों की आत्यन्तिक हानि ही मोक्ष है। सांख्य कारिका में दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही “कैवल्य" कहा है। कैवल्य की प्राप्ति तत्त्वज्ञान होने पर ही संभव होती है। कैवल्य प्राप्ति के बाद सारे संशय दूर हो जाते हैं और हृदय की सारी ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि सांख्य दर्शन में विपर्यय को बंध और ज्ञान को मोक्ष माना गया है। उसमें अज्ञान का नाश ही मोक्ष है।" मीमांसा दर्शन इस दर्शन के अनुसार आत्मा से भिन्न विजातीय वस्तुओं के साथ संबंध होना यह बन्ध है। मीमांसा दर्शन तीन बन्धन मानता है - (१) भोक्ता शरीर, (२) भोग के साधन और (३) भोग विषय (सब जागतिक पदार्थ)। . आत्मा अनादि काल से इन तीन बंधनों में पड़ा है और अनेक प्रकार के कष्ट सहन कर रहा है। इन बंधनों के कारण आत्मा सुख और दुःख भोगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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