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________________ ३४४ जैन दर्शन के नव तत्त्व कहते हैं । विदेहमुक्ति या परममुक्ति होने पर व्यक्ति की जन्म-मरणरूप सांसारिक बंधन से आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है । * जब योगी दीपक के समान ( प्रकाशस्वरूप ) आत्मभाव के योग से ब्रह्मतत्त्व को अच्छी तरह से प्रत्यक्ष देखता है, तब वह उस अजन्मा निश्चल सब तत्त्वों से विशुद्ध, परमदेव परमात्मा को जानकर सब बंधनों से चिरकाल के लिए मुक्त हो जाता है । २० मनुस्मृति में भी यही कहा है कि जिसने सम्यक् दृष्टि (आत्मदर्शन, तत्त्वज्ञान ) प्राप्त की, वह आत्मा कर्मबद्ध नहीं होता अर्थात् आत्मा यानि कर्ममय दुनिया के बंधन में वह बांधा नहीं जाता। परन्तु जिसे सम्यक् दृष्टि प्राप्त नहीं हुई, वह बार-बार इस संसार में जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है। २१ शिवगीता में लिखा है कि मोक्ष किसी भी जगह रखा हुआ नहीं मिलता। उसे ढूंढने के लिए किसी दूसरे गांव नहीं जाना पड़ता, परन्तु हृदय की अज्ञान ग्रंथि नष्ट होने को ही मोक्ष कहते हैं । २२ महर्षि वेदव्यास ने संसार और मोक्ष की परिभाषा बड़ी सुदंर रीति से की है । वे महाभारत में लिखते हैं कि ममता से प्राणी बंधन में पड़ता है और ममतारहित होने पर बंधन रहित होता है । २३ जैनदर्शन : सुप्रसिद्ध जैन आचार्य उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थसूत्र' अथवा मोक्ष शास्त्र के दसवें अध्याय में मोक्ष का वर्णन किया है और पहले नौ अध्यायों में जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर और निर्जरा तत्त्वों का वर्णन किया है। 1 आत्मा अनादि काल से कर्म के संबंध से परतंत्र है। जैन दर्शन में मिथ्या दृष्टि को ही बंध का कारण माना है । आस्त्रव का संवर करने पर यानी अवरोध करने पर नवीन कर्मों के बंध का अभाव होने से और निर्जरा यानी तपादि द्वारा संचित कर्मों का पूर्ण क्षय होने से समस्त कर्मों से जो आत्यन्तिक मुक्ति होती है, उसे ही 'मोक्ष' या 'निर्वाण' कहा है 1 साधना की चौदह भूमिकाओं में से तेरहवीं और चौदहवीं भूमिका पर पहुँचने पर जीव को मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति होती है। साधना की इन भूमिकाओं को ही 'गुणस्थान' कहते हैं । बारहवीं भूमिका के प्रारम्भ में साधक के मोह का क्षय हो जाता है और उसके अन्त में ज्ञानादि निरोधक अन्य कर्म भी क्षीण हो जाते हैं। तेरहवीं भूमिका में आत्मा में विशुद्ध ज्ञान- ज्योति प्रकट होती है आत्मा की इस अवस्था का नाम सयोगी केवली है । विशुद्ध ज्ञानी होकर भी शारीरिक प्रवृत्तियों से युक्त व्यक्ति को सयोगी केवली कहा जाता है । सयोगी केवली सदेहमुक्त है। | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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