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________________ ३३९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जाते है और वह अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण स्वरूप को प्राप्त होता है। इसे ही मोक्ष कहते हैं। सब कमों के आत्यन्तिक उच्छेद को 'मोक्ष' कहते हैं। मोक्ष शब्द 'मोक्षणं मोक्षः' इस प्रकार क्रियाप्रधान है। मोक्ष 'असने' धातु से बना हुआ है। जिससे कमों का मूल से उच्छेद होता है और कर्म से संपूर्णतः मुक्ति होती है, वही मोक्ष है। जिस प्रकार बंधन में पड़े प्राणी की बेड़ियाँ खोलने पर वह स्वतंत्र होकर, यथेच्छ गमन कर सुखी होता है, उसी प्रकार कर्म बंधन का वियोग होने पर आत्मा स्वाधीन होकर अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करता आत्म-स्वभाव की घातक मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के संचय से छुटकारा प्राप्त कर लेना, यही मोक्ष है और यह अनिर्वचनीय है। आत्मा और कर्म को अलग-अलग करने को ही 'मोक्ष' कहते हैं।" बंध के कारणों का अभाव और पूर्वबद्ध कमों की निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना यही 'मोक्ष' है।२ मोक्ष का विवेचन जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं, आत्मवादी दर्शन है। आत्मा ही परमात्मा बन सकता है। यह बात जैन धर्म में विशेष रूप से कही गयी है। जैन धर्म का शाश्वत सिद्धान्त है कि सुख यह आत्मा का स्वभाव है। शुभ कर्म से सुख और अशुभ कर्म से दुःख प्राप्त होता है। . यदि सिद्धात्मा के सारे गुणों को एकत्रित करके उसका अनन्तवाँ हिस्सा बनाया जाय वे भी इस लोक में साथ ही अलोक में फैले हुए अनंत आकाश में नहीं समा सकेंगे। योगशास्त्र में भी कहा गया है कि स्वर्गलोक, मृत्युलोक एवं पाताललोक में सुरेन्द्र, नरेन्द्र और असुरेन्द्र को जो सुख मिलता है, वह सब सुख मिलकर भी मोक्षसुख के अनन्तवें भाग (हिस्से) की बराबरी नहीं कर सकता। मोक्ष का सुख स्वाभाविक है। इन्द्रिय की अपेक्षा न रखने से वह अतीन्द्रिय है, नित्य है। इसलिए मोक्ष को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ में 'परम पुरुषार्थ' या 'चतुर्वर्ग शिरोमणि' कहा गया है। १३ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा को बद्ध करने वाले आठों प्रकार के कमों का क्षय होना ही 'मोक्ष' है। संवर और निर्जरा ये मोक्ष के साधन हैं। संवर यानी "कर्म आने के द्वार को बंद करना" और निर्जरा यानी “पूर्व में आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म का क्षय करना"। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का सरल अर्थ “समस्त कर्मों से मुक्ति" यह है। इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म आते हैं। कारण जिस प्रकार बेड़ियाँ चाहे वे सोने की हो या लोहे की, मनुष्य को बांधकर ही रखती हैं, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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