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________________ ३१८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व और दूसरा निरोगी अंग-उपांग का प्राप्त करना ) उसी प्रकार अशुभ कर्म-प्रकृति अपनी सजातीय शुभ कर्म-प्रकृति में बदली जा सकती है। आधुनिक मनोविज्ञान में इसे मार्गातरीकरण (Sublimation of Mental Energy) हो जाता है। कुत्सित प्रकृति का उदात्त प्रकृति में मार्गातरीकरण या रूपान्तरीकरण को आधुनिक मानसशास्त्र ने उदात्तीकरण कहा है। अपराधी या दोषी मनोवृत्ति के जो लोग होते हैं, उन्हें सुधारने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। आज मार्गातरीकरण या उदात्तीकरण यह मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधि बन गई है। उसके अलग-अलग रूप बताए गए हैं। उदाहरणार्थ विध्वंसक वृत्ति वाले अशिष्ट विद्यार्थी की मनोवृत्ति को बदल कर उसे रचनात्मक कार्य की ओर मोड़ा जा सकता है। कुत्सित प्रकृति का सत् प्रकृति में संक्रमण करण या उदात्तीकरण करने के लिए प्रथमतः व्यक्ति के मन में क्षणभंगुर सुख के स्थान पर चिरकालीन सुख की भावना जागृत करना आवश्यक है। चिरकालीन भावी सुख के लिए तात्कालिक क्षणिक सुख का त्याग करने की प्रेरणा व्यक्ति में निर्मित होनी चाहिए। इस प्रकार आरंभ में स्वार्थकेंद्रित आत्मसंयम की योग्यता का निर्माण होता है और बाद में दूसरे के सुख के लिए अपने सुख का त्याग करने की पात्रता आती है। इससे चिरकालीन सुख या समाधान का अनुभव होता है। यही चिरकालीन सुख या समाधान सर्व हितकारी प्रवृत्ति अर्थात लोक कल्याण का रूपधारण करता है। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गातरी करण या उदात्तीकरण केवल सजातीय प्रकृति में संभव है, विजातीय प्रकृति में नहीं, उसी प्रकार कर्मविज्ञान में संक्रमण भी केवल सजातीय प्रकृति में ही संभव है, विजातीय प्रकृति में नहीं। यह आश्चर्यजनक समानता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि उदात्तीकरण यह शारीरिक और मानसिक रोगों के उपचार में और जीवन उत्थान में अत्यंत उपयोगी है। मानसशास्त्री प्रयोगशालाओं में असाध्य रोग भी उदात्तीकरण से ठीक किये जाते हैं। जिस प्रकार अशुभ प्रवृत्ति का शुभ प्रवृत्ति में होने वाला रूपान्तर जीवन के उत्थान के लिए उपयोगी है, उसी प्रकार शुभ प्रवृत्तियों का अशुभ प्रवृत्तियों में रूपान्तर होना, यह जीवन के अधःपतन का कारण है। जिस प्रकार मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है, उसी प्रकार कर्मविज्ञान में संक्रमणकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उद्वर्तन, अपवर्तन आदि भी संक्रमण करण का ही अंग हैं। सारांश यह है कि संक्रमण के सिद्धान्त का अनुसरण कर मानव पतन से बच सकता है और अपनी इच्छा के अनुसार अपने भविष्य का निर्माण कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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