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________________ ३१९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ७) उदीरणाकरण : कर्म का स्वाभाविक उदय होने से पहले प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसका उदय कराके उसके कुल को प्राप्त करना, इसे 'उदीरणा करण' कहते हैं। जिस प्रकार शरीर में होने वाले कुछ विकार कालान्तर में रोग के रूप में फल देते हैं, उसका प्रतिबंध करने के लिए इनाक्युलेशन लेकर या औषधियों का उपयोग करके रोग से शीघ्र मुक्ति मिल सकती है, उसी प्रकार कर्मग्रंथियों को उनके नैसर्गिक उदय से पहले प्रयत्नों द्वारा उदित किया जा सकता है और उनका फल भोगा जा सकता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मानव के बहुत से रोग मानव के अज्ञात मन में छिपी ग्रंथियों के कारण ही हैं, जिनका संचय पूर्वजीवन में हुआ होता है। इसलिए अगर ये ग्रंथियाँ बाहर प्रकट होकर नष्ट हो जाती है तो उनसे संबंधित भावी रोग भी नष्ट हो जाते हैं। वर्तमान में इस मानसिक चिकित्सा पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान है। ___ व्यक्ति द्वारा किए गए पाप को या दोषों को गुरू के समक्ष प्रकट करना यह उदीरणा या मनोविश्लेषण पद्धति का ही रूप है। इससे साधारण दोष नष्ट हो जाते हैं। विशेष दोषों को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है। ८) उपशमनाकरण : कर्म का उदय होने न देना इसे 'उपशमनाकरण' कहते हैं। जिस प्रकार शरीर में घाव या ऑपरेशन आदि से पीड़ाएँ उत्पन्न होती हैं, कष्ट का अनुभव होता है, उन कष्टों का या पीड़ाओं का इंजेक्शन या औषधि-उपचार से शमन किया जाता है, रोग विद्यमान होने पर भी रोगी उसके परिणामों से बचता है। उसी प्रकार ज्ञान और भोगने योग्य कर्म प्रकृति के सत्ता में होने पर भी उसके परिणामों से बचना यह उपशमन है। करण ज्ञान की उपयोगिता : जिसकी सहायता से क्रिया या कार्य होता है, उसे 'करण' कहते हैं अर्थात् जो क्रिया का या कार्य का कारण है, हेतु है, वह 'करण' है। ऊपर लिखे आठ प्रकार से कर्म में क्रिया होती रहती है। इसलिए उन्हें 'करण' कहते हैं। ये भाग्य-परिवर्तन के हेतु भी हैं। कर्म या भावी के निर्माण के नियमों का ज्ञान आवश्यक हैं। इन नियमों के अनुसार आचरण किया तो अभीष्ट भावी का निर्माण किया जा सकता है। इन करणों के ज्ञान की उपयोगिता अशुभ कर्म न बांधते हुए शुभ कर्म बांधना यह है, या कर्मबंधन से दूर रहना यह है। निधत्तिकरण की उपयोगिता यह है कि जिससे कर्म दृढ़ होते हैं ऐसी प्रवृत्तियों या भावों से दूर रहना है। निकाचना करण की उपयोगिता यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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