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________________ ३१७ जैन- दर्शन के नव तत्त्व अधिक कष्ट देने वाला होता है। यदि किसी को गांजा पीने की और अफीम खाने की आदत है, तो पुनः पुनः गांजा पीने या अफीम खाने से उसकी वह आदत दृढ़ होती है । व्यसन हमेशा के लिए छूट पाना कठिन हो जाता है । प्रतिदिन नियत समय पर उन नशीले द्रव्यों का सेवन करना ही पड़ता है । इसी प्रकार किसी कर्म- प्रकृति का बंध शिथिल हो और उसे अन्य कर्म प्रकृति का निमित्त मिला, तो वह दृढ़ हो जाता है । प्रयत्नों से कुछ अन्तर आ सकता है, परंतु उसका रूपान्तर होना या नष्ट होना यह संभव नहीं होता । कर्म की ऐसी अवस्था को 'निधत्त करण' कहा जाता है। इसलिए ज्ञानी जनों का यह कर्तव्य है कि अशुभ प्रवृत्तियों को बल देने वाली अधार्मिक प्रवृत्ति से दूर रहें । ३) निकाचनाकरण : जिस क्रिया के कारण कर्मों का बन्ध इतना दृढ़ हो जाये उनमें किसी भी तरह और कुछ भी परिवर्तन नहीं हो, उस क्रिया को निकाचनाकरण कहा जाता है 1 कोई साधारण या केन्सर जैसी कष्टसाध्य बीमारी अपनी वृद्धि के अनुकूल साधन प्राप्त कर असाध्य रोग का रूप धारण करती है। बाद में उस पर औषधोपचार नहीं चलता । वह उसे भोगना ही पड़ता है । उसी प्रकार कर्म भी कषाय की प्रबलता से दृढ़तम बंध को प्राप्त होते हैं । कर्मों का आत्मा के साथ इतना दृढ़ बंध होता हैं कि वे उसे भोगने ही पड़ते हैं। बंध के इस निकाचन स्वरूप को देखकर ज्ञानी जनों को उनसे दूर रहना चाहिए । ४) उदवर्तनाकरण : जिन कारणों से कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तनाकरण कहा जाता है । जिस प्रकार घी, तेल से खांसी बढ़ती है, और अधिक समय तक कष्ट देती है, उसी प्रकार किसी प्रवृत्ति में अतीव रस लेने से उस प्रवृत्ति से संबंधित प्रकृति में अधिक फलदान करने की और अधिक काल तक टिकने की शक्ति आ जाती है। इसलिए ऐसी प्रवृत्ति से दूर रहना चाहिए । ५) अपवर्तनाकरण : जिससे कर्म की स्थिति और रस कम हो जाता है, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं । जिस प्रकार पित्त की बीमारी नींबू आदि के सेवन से कम होती है, तीव्र क्रोध का वेग पानी पीने से कम हो जाता है, उसी प्रकार किए हुए दुष्कर्म की तीव्रता पश्चाताप और प्रायश्चित्त आदि से कम हो जाती हैं। इसलिए अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिए । 1 ६) संक्रमणकरण : जिस करण से पूर्व में बंधी हुई कर्म की प्रकृति अपनी सजातीय प्रकृति में रूपान्तरित होती है, उसे संक्रमण करण कहते हैं। जिस प्रकार विकारग्रस्त हृदय, नेत्र आदि को दूर कर उसके स्थान पर निरोगी हृदय, नेत्र को स्थापित करने से रोगी को द्विविध लाभ होता है, ( एक तो रोग की पीड़ा से बचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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