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________________ जैन-दर्शन के नव तत्त्व वर्तमान काल में ऐसी एक मशीन का भी अविष्कार हुआ है जिसे किसी मनुष्य के मस्तक पर लगाया जाए, वह मनुष्य सत्य बोल रहा है या झूठ यह भी वह मशीन बता सकती है। इस प्रकार शरीर और मन का घनिष्ट संबंध है। प्रख्यात आधुनिक मनोवैज्ञानिक चार्लस् युंग के मतानुसार मनुष्य अज्ञात मन की शक्तियों की जितनी गहराई से जान सकता है और उन पर नियंत्रण रख सकता है, उतनी सीमा तक वह अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। उस अज्ञात मन में भौतिक साधनों की मदद के बिना दूर की घटनाएँ देखने का सामर्थ्य होता है। वह मन भूतकाल में घटी घटनाओं को भी जान सकता है और भविष्य का भी अनुमान कर सकता है। तात्पर्य यह है कि हमारे भावों और प्रवृत्तियों के द्वारा ही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अपनी प्रकृति से ही कर्म निर्मित होते हैं और कर्म की प्रकृति के अनुसार शरीर की और जीवन की प्रत्येक घटना घटित होती है। सुख-दुःख, जय-पराजय आदि सारी बातें हमारे कर्म का ही परिणाम होती हैं। अपना वर्तमानकालीन जीवन यह अपने पूर्व कमों का ही परिणाम होता है। अपने सुख-दुःख के लिए हम ही जिम्मेदार होते हैं। कर्मफल का दूसरा नाम भाग्य है। हम ही अपने भाग्यविधाता होते हैं। अपनी आत्मा ही अपने भावों की निर्माता है। भाग्य को अंकित करने वाले हम ही हैं। हमारी आत्मा ही हमारा भाग्यलेखक है, अन्य कोई नहीं। भाग्य-परिवर्तन की प्रक्रिया : जिस प्रकार बंधा हुआ कर्म फल दिए बिना कभी छूटता नहीं है, यह सत्य है, उसी प्रकार पूर्व बद्ध कर्म में परिवर्तन किया जाता है, यह भी सत्य है। इस व्यवस्था को कर्मशास्त्र मे 'करण' कहा है। 'करण' एक प्रकार की भाग्य-परिवर्तन की प्रक्रिया है। 'करण' के आठ भेद हैं१) बंधन करण : जिस कारण से आत्मा कर्म को ग्रहण कर बंधन को प्राप्त होगा, वह बंधन करण है। जिस प्रकार शरीर द्वारा ग्रहण किए हुए पदार्थ शरीर के हित-अहित के कारणरूप ठहरते हैं, उसी तरह आत्मा द्वारा ग्रहण किए हुए शुभ-अशुभ कर्म आत्मा के लिए सौभाग्य, दुर्भाग्य कारणरूप बनते हैं। इसलिए जो दुर्भाग्य को दूर रखना चाहता है, उसे अशुभ (पाप-प्रवृत्तियों) से दूर रहना चाहिए। जो अच्छे फल की इच्छा करते हैं, उन्हें सेवा, परोपकार, वात्सल्य-भाव आदि शुभ प्रवृत्तियों को करना चाहिए। २) निधत्त करण : जिस क्रिया के कारण पूर्व में बंधे हुए कर्म दृढ़ होते हैं, उसे निधत्त करण कहते हैं। जिस प्रकार किसी को बुखार होने पर उस अवस्था में उसने घी, तेल जैसे घातक पदार्थों का सेवन किया तो उसका बुखार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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