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________________ ३१५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व आधुनिक मनोविज्ञान ने भी प्रकारान्तर से कर्म का अस्तित्व स्वीकार लिया है। प्राणियों के शरीर, मन और जीवन की समस्त स्थितियों के कारण उनके ही अंतःस्तल में छिपे हुए है। भावना के अनुसार ही क्रिया होती है। हृदय में भय का भाव उत्पन्न होते ही शरीर में रोमांच होता हैं। ग्रन्थियों के कार्य प्रभावित होते है। इसी कारण से जंगल में शेर को सामने देखते ही घबराहट होती है। क्रोध उत्पन्न होने पर खून उबलने लगता है और शरीर की उष्णता तथा रक्तदाब बढ़ने लगता है। अभिमान का मद चढ़ने पर व्यक्ति को अपनी यथार्थ स्थिति का विस्मरण होता है। व्यक्ति अपना बड़प्पन दिखाने के लिए असीम खर्च करने लगता है और ऐसा आचरण करता है जो स्वयं के लिए घातक सिद्ध होता है। चिन्ता से हृदयरोग अल्सर, रक्तदाब, अशक्तता, विक्षिप्तता आदि विकृतियाँ होती हैं। ये सभी मनोभावों के शारीरिक संचालन की क्रिया पर हुए परिणाम हैं। इससे भी अधिक आश्चर्यकारक जो बात आधुनिक वैज्ञानिकों ने बताई है, वह यह है कि भावना का प्रभाव केवल शरीर के श्वसन, पचन, रक्ताभिसरण आदि पर ही नहीं, शरीर के प्रत्येक अंग पर भी होता है। शरीर के आकार-प्रकार की निर्मिति के साथ ही जिन तत्त्वों से यह शरीर बना है, उन तत्वों में भी भावना के साथ रासायनिक परिवर्तन होता रहता है। जिस समय व्यक्ति की भावना में परिवर्तन होता है, उस समय उतने ही परिमाण में उन तत्त्वों में भी रासायनिक परिवर्तन होता है, जिनसे सिर, खून, वाल आदि की निर्मिति होती है। रूस के एक विशेषज्ञ मृत व्यक्ति के सिर की हड्डियाँ देखकर उसकी संपूर्ण जीवनकथा कह देते हैं। साथ ही वह व्यक्ति किस प्रकार मरा और मरते समय उस व्यक्ति की क्या भावनाएँ थीं, यह भी बता देते है। आज भी वैज्ञानिक मनुष्य के बालों का रासायनिक विश्लेषण कर उस पर से उस व्यक्ति का स्वभाव, उसकी अपराध भावना उसकी वृत्ति आदि बातें कह सकते हैं। विज्ञान ने आज इतनी प्रगति कर ली है। हड्डियाँ और बाल ये दोनों शरीर के सब से अधिक मजबूत और सब से कम संवेदनशील अंग है। जब उनके आकार, प्रकार और संरचना का भी मानव की प्रवृत्ति और प्रकृति के साथ इतना संबंध है, तो मानव के श्वसन, पचन आदि का भावना से अति घनिष्ट संबंध हो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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