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जैन दर्शन के नव तत्त्व
कर्मवाद यह जैन, विचार और आचार परंपरा का एक अविभाज्य अंग बन गया है। जैन दर्शन और जैन आचार की सब महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ और धारणाएँ कर्मवाद पर आधारित है।
कर्म की अवस्थाएँ :
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जैन दर्शन में कर्म का लक्षण, उसके भेद, उपभेद आदि का विवेचन हैं। प्रत्येक कर्म की बंध, सत्ता और उदय ये तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। जैनेतर दर्शनों में भी कर्म की इन तीन अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । उसमें बंध को क्रियमाण, सत्ता को संचित और उदय को प्रारब्ध कहा गया है। परंतु जैन दर्शन में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म और उनके भेद, उपभेदों द्वारा संसारी आत्मा की अनुभवगम्य विभिन्न अवस्थाओं का जैसा स्पष्ट विवेचन किया गया है, वैसा अन्य दर्शनों में दिखाई नहीं देता । पातंजल योगदर्शन में भी कर्म के जाति, आयु और भोग ये तीन प्रकार के विपाक कहे गए हैं। परन्तु जैन दर्शन में कर्मसंबंधी विचार के सामने वह वर्णन अस्पष्टसा लगता है
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जैन दर्शन में आत्मा और कर्म के लक्षण स्पष्ट करते समय आत्मा के साथ कर्म का संबंध कैसे होता है, उसके कारण क्या हैं, किस प्रकार से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न होती है, आत्मा के साथ कर्म का संबंध कितने काल तक रहता है, उनकी कम से कम और अधिकाधिक काल-मर्यादा कितनी है, कर्म कितने काल तक फल देने में असमर्थ रहता है, कर्म का विपाक समय बदला जा सकता है या नहीं, अगर बदला जा सकता होगा तो उसके लिए आत्मा के कैसे परिणाम आवश्यक हैं, कर्म की तीव्र शक्ति को मन्द शक्ति में और मन्द शक्ति को तीव्र शक्ति में रूपांतरित करने के लिए कौन से आत्मपरिणाम होते हैं, स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से मलिन कैसे बनता है और कर्म के आवरण से आवृत्त होने पर आत्मा अपने स्वभाव को क्यों नही छोड़ता ?... आदि कर्म बंध, सत्ता और उदय की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रश्नों का युक्तिपूर्वक विशद और विस्तृत स्पष्टीकरण जैन कर्म साहित्य में किया गया है। जैन कर्मशास्त्र में कर्म की जो विविध अवस्थाएँ हैं, उनका सामान्यतया इस प्रकार वर्गीकरण किया जाता है
१ ) बन्धन करण, २) निधत्त करण, ३) निकाचना करण, ४) उदवर्तना करण, ५) अपवर्तना करण, ६) संक्रमण करण, ७) उदीरणा करण और ८ )
उपशमन करण ।
इस वर्गीकरण में कर्मों की शक्ति के साथ आत्मा की क्षमता का भी स्पष्टीकरण किया गया है।
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