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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
है। यह सत्य है कि अण्डा मुर्गी से मिलता है, परन्तु मुर्गी भी अण्डे से ही उत्पन्न हुई है। इसलिए दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव है। अतः दोनों में पहले कौन यह नहीं कहा जा सकता। संतति की अपेक्षा से इसका परस्पर कार्यकारण भाव अनादि है। भावकर्म से द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है, इसलिए भावकर्म को कारण और द्रव्यकर्म को कार्य माना जाता है, परन्तु द्रव्यकर्म के अभाव में भावकर्म की भी निष्पत्ति नहीं होती, इसलिए द्रव्यकर्म भी भावकर्म का कारण है। इस प्रकार मुर्गी और अण्डे के समान भावकर्म और द्रव्यकर्म का परस्पर कार्यकारण भाव है। पूर्वापर भाव के अभाव के कारण दोनों अनादि हैं।
मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है, वही कर्म है। कर्म का यह लक्षण भावकर्म और द्रव्यकर्म इन दोनों में मिलता है। भाव कर्म यह आत्मा का वैभाविक परिणाम है, इसलिए उसका उपादान रूपकर्ता जीव ही है। द्रव्यकर्म कार्मण जाति के सूक्ष्म पुद्गलों का विकार है उसका भी कर्ता निमित्त रूप से तो जीव ही है। भावकर्म होने के लिए द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म होने के लिए भावकर्म निमित्त है। इस प्रकार इन दोनों का परस्पर बीजांकुर के समान कार्यकारण संबंध है। कर्मवाद :
भारतीय तत्त्व-चिन्तन में कर्मवाद को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार्वाक के अलावा भारत के सभी चिन्तक कर्मवाद को स्वीकार करते हैं। भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला आदि पर कर्मवाद का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सुख, दुःख और सांसारिक वैचित्र्य का कारण ढूंढते समय भारतीय चिन्तकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त का अन्वेषण किया है। भारत के सर्व साधारण लोगों का भी यही मत है कि प्राणियों को प्राप्त होने वाला सुख या दुःख उनके स्वयं के किए हुए कर्म के फल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जीव अनादि काल से कर्म के अधीन बनकर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। जन्म या मृत्यु का मूल कारण ही कर्म है। जन्म और मृत्यु ये ही सबसे बड़े दुःख हैं। जीव अपने शुभ और अशुभ कर्म के कारण ही परलोक में जाता है। जो जैसा कर्म करता है, उसको उसका उसी प्रकार का फल भोगना पड़ता है।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हरेक का कर्म स्वसंबद्ध होता है, परसंबद्ध नहीं। कर्मवाद की स्थापना के विषय में भारत की सब दार्शनिक परम्पराओं ने अपना योगदान दिया है फिर भी जैन परंपरा में कर्मवाद का जो सुविकसित रूप दृष्टिगोचर होता है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। जैन आचार्यों ने जिस प्रकार कर्मवाद का सुव्यवस्थित, सुसंबद्ध और सर्वांगपूर्ण निरूपण किया है, वैसा अन्यत्र मिलना केवल दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है।
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