________________
३१०
जैन-दर्शन के नव तत्त्व
कर्म और अकर्म :
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के विषय में समझाते हुए कहते है कि - 'कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस संबंध में बुद्धिमान पुरुषों को भी भ्रम होता रहता है।' कर्म क्या है? यह मैं तुम्हें बताता हूँ। इसे समझने पर तू समस्त दोषों से मुक्त हो जायेगा। मनुष्य को 'कर्म' क्या है और अकर्म क्या है? यह समझना चाहिए। क्योंकि कर्म के रहस्य को समझना अतीव कठिन हैं।
__उचित मार्ग कौन-सा है, यह साधारणतया स्पष्ट नहीं होता। परंपरा रूढ़ि और अन्तरात्मा की आवाज अलग-अलग बात कहती है और हमें भ्रान्ति हो जाती है। इन सब में ज्ञानी मनुष्य ही शाश्वत सत्य के आधार पर अपने उच्चतम विवेक के द्वारा मार्ग को ढूंढ पाता है। जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है, वही मनुष्यों में ज्ञानी मनुष्य है और वही योगी भी है।
जब तक हम अनासक्त भावना से कर्म करते हैं तब तक हमारा मानसिक सन्तुलन विचलित नहीं होता है। क्यों कि जो कर्म इच्छा से उत्पन्न होते हैं, उन कमों से हम विरक्त रहते हैं और परमात्मा के साथ एकात्म होकर मात्र अपना कर्त्तव्य करते रहते हैं। यही कर्म में सच्ची अक्रियता है। ऐसा कर्म अकर्म होता है। फल की आसक्ति से रहित कर्म ही 'अकर्म' है। ‘अकर्म' का अर्थ है - कर्म परिणामस्वरूप होने वाले बंधन का अभाव, क्योंकि ऐसा कर्म फल की आसक्ति न रखते हुए किया जाता है। जो व्यक्ति अनासक्त होकर कर्म करता है, वह बंधन में नहीं पड़ता है। उसका कर्म ही 'अकर्म' बन जाता है। अकर्म का अर्थ कर्म का अभाव नही है। जब हम शान्त बैठते हैं और किसी भी बाह्यय कर्म को नहीं करते, तब भी हम मानसिक कर्म तो करते ही हैं।
अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि मूर्ख लोग दुराग्रह और अज्ञान के कारण 'कर्म' से विमुख होते हैं। उनका यह विमुख होना भी कर्म ही है। ज्ञानी लोगों का कर्म अर्थात् निष्काम कर्म वही फल प्रदान करता है, जो निवृत्ति से मिलता है।
गीता ने 'कर्म' शब्द को केवल श्रौत अथवा स्मार्त कर्म, इतने संकुचित अर्थ में न लेते हुए उसे व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है। मनुष्य जो जो कुछ करता है, वे सारे कर्म ही हैं। (अ. ५-८,६) फिर ये कर्म कायिक, वाचिक अथवा मानसिक किसी भी प्रकार के हों।२।। शुभ और अशुभ कर्म :
कर्म दो प्रकार के हैं - १) शुभ और २) अशुभ। शुभ कर्म पुण्य है और अशुभ कर्म पाप है। आत्म-प्रदेशों के साथ शुभ और अशुभ कमों का संश्लेष होता है, इसलिए बंध भी शुभ और अशुभ ऐसा दो प्रकार का होता है। शुभ बंध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org