SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३११ जैन-दर्शन के नव तत्त्व को 'पुण्य बंध' और अशुभ बंध को 'पाप बंध' कहते हैं। पाप बंध से अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति होती है, और पुण्य बंध से अनेक प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। जब आत्मा पूर्व कर्मोदय से होने वाले शुभ-अशुभ भाव में बद्ध होता है, उसी समय वह अनेक प्रकार के पौद्गलिक कर्मों के द्वारा बांधा जाता है। जिस समय जीव जैसे भाव करता है, उस समय उसे वैसे ही शुभ, अशुभ कमों का बंध होता है। मैं जीवों को दुःखी और सुखी करता हूँ, यह जो बुद्धि है, वह मूढ़ बुद्धि है। यह मूढ़ बुद्धि ही शुभ और अशुभ कमों को बांधती है।" इस संसार में राग-द्वेष से युक्त प्रत्येक क्षण परिस्पंदन रूप जो क्रियाएँ होती रहती हैं, उनका मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच प्रकारों में वर्गीकरण किया जाता है। उनके निमित्त से आत्मा के साथ एक प्रकार का अचेतन द्रव्य संश्लिष्ट होता है और वह राग-द्वेष के निमित्त को प्राप्त करके आत्मा के साथ बंध जाता है। अपने विपाक के समय पर वह द्रव्य सुख-दुःख रूप फल देने लगता है। उसे 'कर्म' कहते हैं। दूसरे शब्दों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो किए जाते हैं, उन्हें 'कर्म' कहते हैं। द्रव्य कर्म और भाव कर्म : कर्म के दो भेद हैं : १) द्रव्यकर्म और २) भावकर्म । जीव के राग-द्वेष रूपी जिन भावों के निमित्त से अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन्हीं भावों का नाम 'भावकर्म' है और जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा के साथ संबद्ध होता है, उसे द्रव्यकर्म कहा जाता है। जैन दर्शन में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कर्मबंध के कारण बताए गए हैं। उन पाँचों कारणों का भी कषाय और योग में समावेश हो जाता है। इन दो कारणों को भी अधिक संक्षिप्त किया जाये तो मात्र कषाय ही कर्म-बंध का कारण है, परन्तु कषाय के विकारी रूप अनेक हैं। उन सबको अध्यात्मवादियों ने राग और द्वेष इन दो भेदों में वर्गीकृत किया हैं। क्यों कि कोई भी मानसिक विचार होगा तो वह या तो राग (आसक्ति) रूप या द्वेष (घृणा) रूप होगा। अनुभव से भी यही सिद्ध होता है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति बाह्यतः कैसी भी हो, परन्तु वह राग या द्वेषमूलक ही होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति विविध वासनाओं के जन्म का कारण होती है। प्राणियों की समझ में आए या न आए, परन्तु उनकी वासनात्मक प्रवृत्तियों का मूल कारण उनका राग-द्वेष ही होता मकड़ी जिस प्रकार उसी के बनाए हुए जाल में फंस जाती है, उसी प्रकार जीव भी स्वयं की प्रवृत्ति से अज्ञान और मोहवशात् कर्म के जाल में फँस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy