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________________ ३०९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व विद्यमान कर्म परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किए जाते हैं। प्रवृत्ति की तर-तमता के अनुसार संख्या में भी तारतम्य दिखाई देता है। प्रवृत्ति में परिमाण में आधिक्य होने पर परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है। उसी तरह प्रवृत्ति के परिमाण में न्यूनता होने पर उनकी संख्या में भी न्यूनता होती है। गृहीत पुद्गल-परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना इसे जैन कर्मवाद की परिभाषा में 'प्रदेश बंध' कहा जाता है। इन्हीं परमाणुओं की ज्ञानावरण (जिन कमों से आत्मा की ज्ञान-शक्ति आवरित होती है) आदि अनेक रूपों में परिणति होती है। इसे 'प्रकृति बंध' कहा जाता है। प्रदेश-बंध में कर्म-परमाणुओं का परिमाण अभिप्रेत होता है। प्रकृति-बंध में कर्म-परमाणुओं के स्वभाव पर विचार किया जाता है। भिन्न-भिन्न स्वभाव के कमों की भिन्न-भिन्न परमाणु संख्या होती है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जाएगा कि विभिन्न कर्म-प्रकृतियों के विभिन्न कर्म-प्रदेश होते हैं। जैन कर्म-शास्त्र में इस प्रश्न पर भी काफी प्रकाश डाला गया है कि कर्म-प्रकृतियों के कितने प्रदेश होते हैं और उनका तुलनात्मक मूल्यमापन क्या है? कर्मरूप से गृहीत पुद्गलपरमाणुओं के कर्म-फल का काल और विपाक की तीव्रता-मन्दता इनका निश्चय आत्मा के अध्यवसाय अर्थात् कषाय की तीव्रता और मन्दता के अनुसार होता है। कर्मविपाक का काल तथा विपाक की तीव्रता और मन्दता के निश्चय को क्रमशः स्थितिबंध और अनुभागबंध कहते हैं। कषाय के अभाव में कर्म-परमाणु आत्मा के साथ संबद्ध नहीं रह सकते। - जिस प्रकार सूखे वस्त्र पर धूल चिपकती नहीं, केवल स्पर्श करके अलग होती है, उसी प्रकार आत्मा में कषाय की आर्द्रता न होने पर कर्म-परमाणु उससे संबद्ध नहीं होते, केवल स्पर्श करके अलग हो जाते हैं। इस प्रकार का निर्बल कर्म-बंध असांपरायिक बंध हैं। सकषाय कर्म-बंध को सांपरायिक बंध कहते हैं। असांपरायिक बंध संसार-भ्रमण का कारण नहीं है, परन्तु सांपरायिक बंध के कारण जीव को संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। कहीं-कहीं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन्हें कर्म-बंध का कारण माना गया है। अन्यत्र राग, द्वेष, मोह को भी कर्म-बंध का कारण माना संपूर्ण संसार कर्म-परमाणुओं से व्याप्त है। जिस प्रकार तप्त लोह पिण्ड अपने चारों और से पानी को आकर्षित करता है अथवा लोह चुंबक लोहे के कणों को आकर्षित करता है, उसी तरह से जीव चारों तरफ से कर्म को आकर्षित कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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