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________________ ३०८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व होता है। कर्म के कारण मिथ्यात्व और असंयम प्राप्त होता है एवं उनके निमित्त से ही जीव त्रिलोक में परिभ्रमण भी करता है। पं. बलदेव उपाध्याय लिखते हैं - विश्व की नैतिक सुव्यवस्था का मूल कारण कर्म-सिद्धान्त है, यह बात हरेक दर्शन मानता है। जो कुछ कार्य हम अपने प्रयत्नों से करते हैं, उसका फल अवश्य मिलता है। उसका नाश किसी भी तरह से नहीं होता। जिसका फल हम अभी भोगते हैं, वह पूर्वजन्म में किए हुए कर्म का ही फल है। वह कारण के बिना उत्पन्न नहीं होता। कर्म-सिद्धान्त का यही तात्पर्य है कि इस विश्व में अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं होता। सब ओर नैतिक सुव्यवस्था का साम्राज्य है। कर्म-सिद्धान्त को अंगीकार करने पर ही मनुष्य की आंतरिक शक्ति का विकास हो सकता है। कर्म-संक्रमण : एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म-परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तन या परिणमन होना ही "कर्म-संक्रमण" है। दूसरे शब्दों में शुभ कमों का अशुभ कर्म में और अशुभ कर्म का शुभ कर्म में परिवर्तन होना ही 'कर्म-संक्रमण' है। भाव शुद्धि के कारण अशुभ कमों का संक्रमण शुभ कमों में हो सकता है। संक्रमण के चार भेद हैं - १. प्रकृति संक्रमण २. स्थिति संक्रमण ३. अनुभाग संक्रमण ४. प्रदेश संक्रमण यह संक्रमण अष्ट मूल प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है, मूल प्रकृतियों में नहीं होता। संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में होता है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं होता। सजातीय प्रकृति के संक्रमण में भी कुछ अपवाद हैं। जैसे आयुष्य कर्म की नरकायु आदि चारों आयुओं में परस्पर संक्रमण नहीं होता और इसी प्रकार दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। कर्मबंध प्रक्रिया ___ जैन दर्शन में कर्मबंध प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है। योग और कषाय के कारण कर्मबंध होता है। योग अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक आवेग। यहीं से कर्मबंध की प्रक्रिया शुरू होती है। त्रिलोक में ऐसा एक भी स्थान नहीं जहाँ कर्मयोग्य पुद्गलपरमाणु विद्यमान नहीं हो। ___ जब प्राणी अपने मन, वचन या काया की प्रवृत्तियों के द्वारा किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों तरफ से कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणु आकृष्ट होते हैं। जितने क्षेत्र में उसके आत्म प्रदेश विद्यमान रहते हैं, उतने प्रदेश में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrare org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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